(दिनांक: 11 नवंबर, 1957)
विषय: माननीय मुख्यमंत्री डाॅ. श्री कृष्ण सिंह द्वारा लाए गए ‘बिहार आॅफिसियल लैंग्वेज बिल, 1957’ पर वाद-विवाद के क्रम में।
डाॅ. श्री कृष्ण सिंह: मैं प्रस्ताव करता हूँ कि-
बिहार आॅफिसियल लैंग्वेज (अमेंडमेंट) बिल 1957 पर विचार हो।
श्री कर्पूरी ठाकुर: माननीय अध्यक्ष महोदय, मैं बिहार लैंग्वेज (अमेंडमेंट) बिल, जो हमारे माननीय मुख्यमंत्री द्वारा सदन में उपस्थित किया गया है, उसका विरोध करने के लिए खड़ा हुआ हूँ। आश्चर्य का विषय है कि हमारे माननीय मुख्यमंत्री महोदय और मंत्रिमंडल के सभी सदस्य, जो हिंदी भाषा के प्रेमी रहते आए हैं, जो हिंदी की प्रगति चाहते हैं और सबसे बढ़कर आश्चर्य की बात यह है कि हमारे श्री लक्ष्मी नारायण सुधांशु, जो हिंदी भाषा के विद्वान् हैं और हिंदी की प्रगति के लिए रात-दिन सभी तरह का प्रयास करते हैं, वे इस विधेयक का समर्थन कर रहे हैं। आपने जैसा देखा होगा, जो विधेयक प्रस्तुत किया गया है, तीन साल की अवधि बढ़ाने के लिए, उसके तीन कारण बताए गए हैं। मैं इसलिए विरोध कर रहा हूँ कि उनके समर्थन को सही नहीं मानता हूँ। विधेयक में तीन कारण बताए गए हैं। प्रथम यह है कि जो हमारे आॅफिसर्स हैं और जो उनके सहायक है, वे दक्षतापूर्वक तेजी से नोट को या मसविदा को तैयार नहीं कर सकते हैं। दूसरा कारण यह है कि हाईकोर्ट भी इस पक्ष में नहीं है कि कचहरियों मेें हिंदी को 1957 ई. से 29 नवंबर के बाद तुरंत लागू कर दिया जाए, तीसरा कारण यह बताया गया है कि जो रूल्स, मैनुअल्स, कोड्स रेगुलेशंस हैं, उनका अनुवाद हिंदी में नहीं हो पाया है। ये कारण यद्यपि दिखाए गए हैं, अवधि की वृद्धि के लिए, लेकिन ये कठिनाइयाँ उपस्थित नहीं हो सकती थीं, अगर हिंदी की प्रगति के लिए और हिंदी को 29 नवंबर, 1957 इ. के बाद से लागू करने के लिए विशेष रूप से प्रयास किया गया होता? आप जानते हैं कि बिहार लैंग्वेज ऐक्ट 1950 ई. में पास हुआ। सात वर्ष समाप्त होने जा रहे हैं, इस सात वर्ष अवधि को कोई भी माननीय सदस्य खड़े होकर कहे कि क्या कम थी, यह सात वर्ष काफी नहीं है? इस लंबी अवधि में नोट तैयार करने की, मसविदा तैयार करने की जो क्षमता होनी चाहिए थी, नहीं प्राप्त हो सकी। अगर इस तरह की बात आप कहें तो यह अनुपयुक्त बात मालूम होती है।
अध्यक्ष: अगर वस्तुस्थिति यही हो तब?
श्री कर्पूरी ठाकुर: आपको मानना पड़ेगा कि सात वर्ष की अवधि एक लंबी अवधि है। अगर सरकार को ‘सेंस आॅफ अरजेंसी’ होती, अगर सरकार इसके लिए सचेष्ट रहती कि यह हमारा काम है और इसे हर हालत में करना है और अगर सरकार अपने अफसरों को, सहायकों को या मददगोरों को तैयार किए होती तो आज, जो वस्तुस्थिति है, वह नहीं होने पाती। मैं ऐसी भी मान रहा हूँ कि अगर कोई व्यक्ति संकल्प कर ले कि अमुक काम को हमें संपादन करना है और संपादन नहीं कर पावे, तो यह उसकी मानसिक कमजोरी है, उसके दौर्बल्य होने की निशानी है। यह माना जाएगा कि वह व्यक्ति कमजोर है, उसके दौर्बल्य होने की निषानी है। ठीक उसी तरह अगर सरकार ने निश्चित करके सात वर्ष की अवधि माँगी इस प्रांत की जनता से, इस सदन से और उसके बाद इस लंबी अवधि में भी नहीं पूरा कर पाए, तो सरकार के दिल की कमजोरी मानी जाएगी। मुझे याद है और आप लोगों को भी याद होगा कि कई बार इस सदन में इस संबंध में प्रश्न उपस्थित किए गए। कई बार सवाल पूछे गए है ं कि बहुत से टाइपिस्ट हैं, बहुत से लोग हिंदी भाषा जानने वाले हैं, उनकी बहाली क्यों नहीं होती है, तो कहा गया कि वे हिंदी में टाइप करना जानते हैं, लेकिन अंग्रेजी में नहीं।
हिंदी के जाननेवाले लोग तैयार होकर बैठे हैं। आज उनकी बहाली नहीं हो रही है, क्योंकि वे अंग्रेजी नहीं जानते हैं। पर ऐसा क्यों नहीं किया जाए कि उनके साथ भी नियम लागू कर दिया जाए, जैसाकि अंग्रेजीवालों के साथ है। जिस तरह अंग्रेजीवालों को हिंदी की शिक्षा देते हैं, वैसी ही शिक्षा हिंदीवालों को भी दी जाए। मैं जानता हूँ कि जो सहूलियत चाहिए थी, सरकार से इस दिशा में, जो प्रयास करना चाहिए था, सरकार के द्वारा नहीं किया गया और हमें भय है कि तीन साल के बाद भी राष्ट्रभाषा हिंदी हो सकेगी। जैसाकि मेरे मित्र श्री रामवृक्ष बेनीपुरीजी ने कहा कि आप तीन वर्ष की अवधि माँग रहे हैं, पर ऐसा करने से आपका प्रयास शिथिल पड़ जाएगा, क्योंकि अपने देश के अंदर हिंदी राष्ट्रभाषा ही, इसके लिए बहुत से आंदोलन चल रहे हैं। इसके लिए एक लंबी अवधि माँगी जा रही है। बहुत जगह इस तरह का भी आंदोलन चला रहा है कि हिंदी को राष्ट्र भाषा नहीं बनाया जाए और अगर माना जाए तो अंग्रेजी को लंबी अवधि तक रखा जाए। जो तेलगू या मलयालम भाषा-भाषी हैं, वे इस बात को कहें तो मैं मान सकता हूँ। महाराष्ट्र या गुजराती भाषा-भाषी हैं, उनका इस भाषा से विरोध नहीं है, जो बँगला बोलनेवाले हैं या मद्रासी है, उन लोगों का विरोध है और उन लोगों के लिए कोई उपाय निकाला जा सकता है। हिंदी किस तरह सिखाई जाए, किस तरह उन लोगों में भी हिंदी के प्रति प्रेम जाग्रत् किया जाए, किस तरह से मनोवैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण करें, उनका मानस इस ओर तैयार किया जाए कि लोग राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को बना लें। लेकिन जब हिंदी बिहार की मातृभाषा है, यहाँ 4 करोड़ 25 लाख की आबादी है, जिसमें कुछ ही लाख लोग हैं, तो हिंदी नहीं बोलनेवाले हैं। जब सारे बिहार की मातृभाषा हिंदी हो, तो मैं कोई कारण नहीं समझा पाता कि विशेष प्रयास करके क्यों नहीं राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को रख पाते? मैं नहीं समझता कि जो कारण उपस्थित किए गए हैं, रूल्स मैनुअल्स के अनुवाद के संबंध में, वे जायज हैं। 29 नवंबर को हिंदी में सब काम चला करके अनुवाद का काम दो-चार महीने में पूरा किया जा सकता था। हाईकोर्ट को कुछ दिनों के लिए छोड़ दे सकते थे, लेकिन सभी विभागों के लिए, कोर्ट, कचहरियों के लिए, सभी के लिए रेगुलेशन, कोड और मैनुअल्स के नाम पर तीन वर्ष का समय लेना मैं समझता हूँ कि हिंदी के प्रति न्याय नहीं है। उस सरकार के लिए, जिस सरकार के लोगों ने हिंदी के लिए अपने जीवन में संघर्ष किया है और बराबर हिंदी में ही अपने विचारों का व्यवहार किया है, राष्ट्रीयता के लिए राष्ट्रभाषा को अनिवार्य माना है। जिन्होंने 26 जनवरी को प्रतिज्ञा ली है कि अंग्रेजी सरकार ने हमारी संस्कृति का विनाष किया है। जिन लोगों ने इस बात को समझ लिया था कि अंग्रेजों ने हमारी राजनीति को, संस्कृति को और स्वतंत्रता का विनाश किया है और यह समझकर अंग्रेजी राज्य को यहाँ से उखाड़ फेंका, उनके लिए यह तीन वर्ष की अवधि बढ़ाने की बात नहीं जँचती है। यह बताता है कि सरकार में ‘सेंस आॅफ अरजेंसी’ नहीं है, जो संकल्प करती है, उसको पूरा नहीं कर पाती है। सिद्धांत के रूप को मानकर बिहार की आवश्यक माँग को मानकर इस तरह का बिल नहीं लाना चाहिए था, इसलिए मैं विरोध कर रहा हूँ और चाहता हूँ कि सदन भी इसका विरोध करे और सरकार से आग्रह करे कि वह अपनी प्रतिज्ञा को, जैसाकि 1950 ई. में निर्देश दिया था कि 29 नवंबर, 1957 ई।. से हिंदी में काम होंगे, आचरण करे। इन्हीं शब्दों के साथ मैंे। इस बिल का विरोध करता हूँ।