(दिनांक: 22 अगस्त, 1961)


विषय: श्री जानकी रमण मिश्र द्वारा दिनांक 08.08.1961 ई. को लाए गए प्रस्ताव ‘बिहार लैंड रिफाॅम्र्स (फिक्सेशन आॅफ सिलिंग आॅफ लैंड) बिल 1959’ के वाद-विवाद के क्रम में।

श्री कर्पूरी ठाकुर: अध्यक्ष महोदय, प्रस्तुत विधेयक पर जो एक प्रस्ताव जनमत जानने के लिए प्रचारित करने का और दूसरा प्रवर समिति में भेजने का है, इन दोनों प्रस्तावों के विरोध करने के लिए मैं खड़ा हुआ हूँ। कल जनता पार्टी की तरफ से बोलते हुए श्री ब्रजेश्वर प्रसाद सिंह ने अपने भाषण में यह कहा था कि वर्तमान सीलिंग बिल द्वारा जो जमीन लेने की बात सरकार सोच रही है, वह डकैती हैे और मुझे इस बात को सुनकर आश्चर्य हुआ कि जनता पार्टी, जो स्वतंत्र पार्टी में सम्मिलित हुई है, उसके एक प्रमुख सदस्य इस तरह की बात कहते हैं।

अध्यक्ष महोदय: उन्होंने यह कहा था कि यह लिगनाइंड डकैती है।

श्री कर्पूरी ठाकुर: अच्छी बात है। स्वतंत्र पार्टी के संस्थापक हमारे श्री राजगोपालाचारी हैं और उनका यह कहना है कि स्वतंत्र पार्टी राज्य धर्म पर आधारित होगा। आज के राज्य में कोई धर्म नहीं है और जब स्वतंत्र पार्टी का राज्य का होगा तो धर्म का राज्य होगा। यदि उनकी उस उक्ति को सही माना जाए तो हमारे जनता पार्टी के सदस्य का यह कथन कि सीलिंग बिल के जरिए, जो जमीन ली जाएगी, वह लिगलाइन इन डकैती होगी, सर्वथा असत्य और गलत हो जाता है। मैं अपने साथी सदस्य से यह कहना चाहता हूँ कि संत विनोबा भावे नित्य प्रतिदिन प्रार्थना करते हैं और उनके साथी इसको रोजाना दुहराते हैं, जो एक श्लोक है और वह श्लोक इस प्रकार है-

‘‘अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, असंग्रहः शरीरश्रम अस्वाद सर्वत्रमयवर्जनम् सर्वधर्मीः समानत्व, स्वदेशी स्पर्शभावना ही एकादश सेवावी नभ्रत्वं ब्रत निश्चये।’’


धर्म का एकादश लक्षण, जो इसमें बतलाया गया है, उसमें अपरिग्रह और असंग्रह भी है। अध्यक्ष महोदय, आप तो गीता के महान् ज्ञाता हैं और गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने भी कहा है कि परिग्रह करना चोरी है और इसलिए जो भी धर्म का अबलंबन करना चाहता है, उसको असंग्रह और अपरिग्रह व्रत का पालन करना चाहिए। यदि स्वतंत्र पार्टी इस देश में जिस नई व्यवस्था की स्थापना करना चाहती है, उसमें वह संग्रह और परिग्रह का विरोध करना चाहती है। लेकिन हमारी जनता पार्टी के सदस्य ने कल बोलते हुए परिग्रह और संग्रह का समर्थन किया और इस तरह से जमीन रखने के अधिकार का समर्थन कर धर्म और सत्य का पालन नहीं किया। एक उक्ति है, अध्यक्ष महोदय को भी याद होगा, जिसमें यह कहा गया है कि धनी आदमी को स्वर्ग के द्वार में प्रवेश करना उतनी ही मुशिकल है, जितना कि ऊँट के लिए सुई के छेद से पास करना। बाइबिल, गीता और इसलाम जो धर्म सिखलाता है, उसमें भी संग्रह और परिग्रह की निंदा है और यह बतलाया जाता है कि उतनी ही जमीन रखनी चाहिए, जितनी जरूरी है। जो धन और ऐश्वर्य के मद में फँसकर ज्यादा जमीन रखते हैं, वे धर्म और स्वर्ग के अधिकारी नहीं रह जाते हैं। हमारे माननीय सदस्य ने जिस सिद्धांत का प्रतिपादन किया, यह तो आँख में धूल झोंकने के समान हैे। उनका कहना है कि संविधान में सीलिंग लगाकर जमीन वितरण की बात नहीं है। संविधान में साफ-साफ यह लिखा हुआ है और यह कहा गया है कि-

"The State shall strive to promote the welfare of the people by securing and protecting as effectively as it may a social order in which justice, social, economic and political, shall inform all the institutions of the national life.

(a)That the citizens men and women equally, have the right to an adequate means of livelihood;

(b) That the ownership and control of the material resources of the community are so distributed as best to subserve the common good;

(c) That the operation of the economic system does not result in the concentration fof wealth and means of production to the common detriment;"


इसमें जैसा कहा गया है, उसके अनुसार धन का कंसंेटेªशन नहीं होगा और उस पर रोक लग जाएगा। जो सिस्टम कंसेंटेªशन का है, वह नहीं रहेगा। इसके जरिए धन संग्रह को बढ़ाया नहीं दिया जाएगा, बल्कि पैदावार को बढ़ाया जाएगा। इकोनाॅमिक सिस्टम तो वह होनी चाहिए, जो यह गारंटी करें कि सबको जीवन साधन प्राप्त होगा, सबको रोटी मिलेगी और यह सिद्धांत हमारे संविधान में दिया हुआ है, लेकिन जैसा कि वे कल फरमा रहे थे, वह संविधान के विपरीत हैं। अगर इसी रूप में यह बिल स्वीकृत हो गया तो हम समझते हैं कि सुप्रीम कोर्ट में जाकर टूट जाएगा। मैं जानता हूँ कि जब भारतवर्ष में स्वतंत्रता संग्राम चल रहा था, उसमें स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिए कितने प्रयास किए गए। सन् 1876 ई. में इसी देश के विद्वान् श्री दादा भाई नौरोजी ने ‘पाॅवर्टी आॅफ इंडिया’ नामक किताब लिखी और उसको पार्लियामेंट के सामने भी रखा गया। श्री गोखले एवं महात्मा गांधीजी ने यही कहा था कि हमको सिर्फ राजनीतिक आजादी ही नहीं लेनी है, बल्कि हमें आर्थिक और सामाजिक आजादी भी लेनी है। जब भारत आजाद हो गया तो आजाद होने के बाद पार्लियामेंट तथा असेंबली में इसी प्रकार के कानून पेश किए गए, जिससे जनता का कल्याण अधिक-से-अधिक हो सके। जिनके हाथ में जमीन है, वे जमीन लेकर बैठे नहीं रहे और जो जमीन जोतने वाले हैं, उनके हाथ में जमीन जानी चाहिए। मुझे तो आश्चर्य होता है कि क्यों इस बिल का विरोध स्वतंत्र पार्टी द्वारा, जनता पार्टी द्वारा किया जाता है? लेकिन मुझे उतना आश्वर्य नहीं होता है, क्योंकि स्वाधीनता संग्राम में जनता पार्टी या स्वतंत्र पार्टी के लोगों का कोई हाथ नहीं था। उनके अंदर जो राष्ट्रीय चेतना होनी चाहिए, जो सामाजिक भावना होनी चाहिए और देश के नव-निर्माण में आम लोगों का हाथ होना चाहिए, वे इसके समर्थक नहीं रहे। जनता पार्टी के जो सदस्य हैं, उनका हाथ स्वाधीनता संग्राम में नहीं था, यह सभी जानते हैं।

मैं यह कह रहा था, अध्यक्ष महोदय कि इस विधेयक पर जनता पार्टी की ओर से जो विरोध हुआ है, वह लज्जा का विषय है। विरोध क्यों होता है, मैं समझता हूँ। विरोध इसलिए होता है कि ‘एडम स्मिथ’ का जो सिद्धांत है, इकोनाॅमिक्स का, ‘रिकार्डो’ का जो सिद्धांत है और ‘जबीशे’ का जो सिद्धांत है, उस सिद्धांत को आज बीसवीं शताब्दी में हमारी जनता पार्टी समर्थन करनेवाली है। उनका यह निश्चित मत है कि इन इकोनाॅमिस्टों के अलावे इस संसार में एडम स्मिथ, रिकार्डो और जेबिशे के अलावे सिसमंडी जैसे इकोनाॅमिस्ट पैदा हुए थे, इस संसार में सेंट साइमन भी पैदा हुए थे, इस संसार में राॅबर्ट, प्रटो, माक्र्स और महात्मा गांधी इस युग में पैदा हुए थे। जनता पार्टी समझती है कि अर्थशास्त्र के विषय में प्राइवेट प्रोपर्टी की ही सैंकटिटी (Sancitity) है। वह इस बात का समर्थन करती है कि जिसके पास जितना पैसा है, जिसके पास जितनी संपत्ति है, उसका संरक्षण सिर्फ उसी के हित के लिए होना चाहिए, और जिन इकोनाॅमिस्टों ने धन के वितरण के बारे में कहा है, वे इकोनाॅमिस्ट ही नहीं हैं।

वह जमाना अध्यक्ष महोदय, लद गया, जब सैंकटिटी आॅफ प्राइवेट प्रोपर्टी के माननेवाले इस संसार में थे। आज के युग में शासन की पाॅलिसी बदल गई है, इकोनाॅमिक पाॅलिसी बदल रही है, सामाजिक पाॅलिसी बदल रही है। ऐसी हालत में जब आप सैंकटिटी आॅफ प्राइवेट प्रोपर्टी की बात करते हैं तो सामाजिक नीति, अर्थ नीति आदि के विपरीत बात करते हैं, मैं मानता हूँ कि प्राइवेट प्रोपर्टी, जो चल रही है और शायद यह वर्षों चलेगी। लेकिन प्राइवेट प्रोपर्टी का मतलब यह है कि यह आपका कुरता है, यह मेरी धोती है, यह आपका पैंट है, यह मेरा कोट है, तो यह मानने की बात है। लेकिन आज क्या हो रहा है? जमीन का जहाँ तक सवाल है, जंगल का, उद्योग का, नदी का, खान का, खाड़ी का, समुद्र का या ऐसे साधनों का सवाल है और ये चीजें ऐसी हैं, जिनके बारे में सभी संस्थाओं का मत है कि ये सामज की चीजें हैं और इनका इंतजाम समाज के हाथ में जाना चाहिए।

अध्यक्ष: तो आप आधे रास्ते पर रूक क्यों जाते हैं?

श्री कर्पूरी ठाकुर: इसलिए कि समाज में हम या आप इसके लिए तैयार नहीं हैं।

अध्यक्ष: आप कम्युनिस्टों के साथ क्यों नहीं जाते हैं?

श्री कर्पूरी ठाकुर: समाजवाद का, साम्यवाद का, सर्वोदय का जो सिद्धांत है, उससे ऐसा पता चलता है कि वे चाहते हैं किं संपत्ति पर समाज का स्वामित्व होना चाहिए; लेकिन इसके लिए क्या पाॅलिसी होगी, कैसे कारगर किया जाएगा, हिंसा से या अहिंसा से, कानून से या जोर-जबरदस्ती से, राज्य के हाथ में सौंपकर या अराज्य व्यवस्था के द्वारा किया जाएगा? इन प्रशन पर भिन्न-भिन्न दलों के भिन्न-भिन्न मत हैं और यही कारण है कि एक-दूसरे में मतभेद है।

अध्यक्ष: ध्येय एक है?

श्री कर्पूरी ठाकुर: हाँ, लेकिन रास्ता अलग-अलग होने के कारण, कार्यक्रम अलग होने की वजह से, देश में भिन्न-भिन्न दल चल रहे हैं और उनमें मतभेद चल रहा है, तो अध्यक्ष महोदय, मैं आपसे यह कहना चाहता था कि बुनियादी उसूल बिल मेें रखा गया है कि जमीन पर सीलिंग होना चाहिए, जमीन का बँटवारा होना चाहिए।

अध्यक्ष: कांग्रेस पार्टी्र भी आप ही के साथ है।

श्री कर्पूरी ठाकुर: चाहती है कांगं्रेस पार्टी, अध्यक्ष महोदय, लेकिन यह करती नहीं है और यह बिल जो है, उससे साफ मतलब निकलता है कि यह होनेवाला नहीं है।

अध्यक्ष: तब तो आपने मान लिया। फर्क यही है कि कोई चार मील पर है, दस मील पर है और कोई बीस मील पर है।

श्री कर्पूरी ठाकुर: और जो भी हो, लेकिन सीलिंग का जो प्रिंसिपल है, उसे कांग्रेस पार्टी ने मान लिया है और यह स्पष्ट है कि जमीन की सीलिंग होनी चाहिए और सरप्लस जमीन को बाँटना चाहिए। लेकिन आगे मैंे यह बतला देना चाहता हूँ कि इस सीलिंग से जमीन का बँटवारा होनेवाला नहीं है। अध्यक्ष महोदय, इस बिल के बारे में जो यह कहा जा रहा है कि इसे लोकमत जानने के लिए भेज दिया जाय, यह अनुचित मालूम होता है। सदन में जितने सदस्य बैठे हुए हैं, इनका चुनाव जनता द्वारा बालिग मताधिकार के आधार पर किया गया है। मेरा यह खयाल है कि 95 फीसदी सदस्य जनता के प्रतिनिधित्व करनेवाले हैं, चाहे कांग्रेस पाटी के हों, झारखंड के हों, पी.एस.पी. के हों, कम्युनिस्ट पार्टी के हों, या सोशलिस्ट पार्टी के हों, सभी इस मत के है कि सीलिंग होनी चाहिए और जमीन का बँटवारा होना चाहिए। सिफ 4 या 5 फीसदी मुश्किल से ऐसे सदस्य होंगे, जो यह कहते हैं कि सीलिंग नहीं होनी चाहिए और उनके खयाल में जमीन का बँटवारा नहीं होना चाहिए। मैं ऐसा मानता हूँ कि जब 95 फीसदी जनता का प्रतिनिधित्व यहीं हो रहा हैे तो ऐसी हालत में लोकमत जानने के लिए इस बिल को भेजना अनुचित मालूम होता है। क्योंकि चार-पाँच फीसदी सदस्य जनता के प्रतिनिधित्व करनेवाले इसके पक्ष में नहीं है। इसलिए मैं इस मोशन का विरोध करता हूँ।

आज जो अपने देश में ऐग्रेरियन इकोनाॅमी है, उसे सभी लोग जानते हैं; 86 परसेंट लोग अपने प्रांत में खेती पर निर्भर करते हैं। बर्मा के एग्रीकल्चर मिनिस्टर ने 1948 ई. में लैंड नेशनलाइजेशन बिल पेश करते हुए कहा था कि एग्रीकल्चर इकोनाॅमी में तीन मुख्य बातें होती हैं। पहली बात य है है कि एग्रीकल्चर प्राॅब्लम का सोल्यूशन यह है कि सिक्यूरिटी आॅफ टेनियोर का हल होना चाहिए। जो बँटाईदार हैं, ठीकें पर खेत जोतते हैं, ऐसे लोगों की सिक्यूरिटी आॅफ टेनियोर का हक होना चाहिए। इतना ही नहीं, रेट आॅफ टेनेंसी मुनासिब होना चाहिए। अध्यक्ष महोदय, अपने प्रांत में मनहुंडा, बटाई का सिद्धांत, ठेके का सिद्धांत आदि चला हुआ है। बँटाईदार लोग, ये ठीके पर जोतने वाले लोगा जितना भी पैदा करते हैं, उनका एक-तिहाई हिस्सा या कभी-कभी आधा हिस्सा जमीन के मालिक ले लेते हैं। ऐग्रेरियन प्राॅब्लम में बर्मा के मिनिस्टिर ने पहला सबाल यही उठाया था कि सिक्यूरिटी आॅफ टेनियोर हो और रेंट मुनासिब होना चाहिए। लेकिन अपने प्रांत में आधा हिस्सा, एक-तिहाई फसल का मालिक को दे देना पड़ता है। दूसरी बात यह है कि बहुत से लोग भूमिहीन हैं और खेती करते हैं, खेतों में मेहनत करते हैं, हल चलाते हैं, कुदाल चलाते हैं और जिनके पास खेत नहीं, उनके लिए समस्या का निदान निकालना चाहिए।

तीसरी बात यह है, अध्यक्ष महोदय कि सबसे बड़ी हाई हैंडेडनेस कर्जखोरी है। बहुत से लोग, खेतिहर मजदूर कर्ज में डूबे हुए हैं। इसके लिए भी कोई निदान निकालना चाहिए और कर्ज की दूसरी व्यवस्था करनी चाहिए।

तो अध्यक्ष महोदय, सिक्यूरिटी आॅफ मुनासिब रेंट, भूमिहीनों के लिए जमीन की समस्या और कर्जखोंरों के लिए कर्ज की समस्या का निदान यही तीन मुख्य बातें कही गई।

अध्यक्ष: यह बड़ा व्यापक सवाल है। जो भूमिहीन हैं, वे भूमि चाहते हों, तब न उन्हें जीमीन दी जाएगी।

श्री कर्पूरी ठाकुर: भूमिहीन से मेरा मतलब है, जो खेती करते हैं। जमीन जोतते, हल, खुरपी, कुदाल चलाते हैं और वे चाहते हैं कि हमेें जमीन मिले और जमीन मिले जीने के लिए, नफाखोरी और सूदखोरी के लिए नहीं। तो ऐसे भूमिहीनों को जमीन देना बहुत जरूरी है।

अध्यक्ष: अगर किसी भूमिहीन को आपने जमीन दी और वह ऐसी व्यवस्था करे कि उसको पैसा मिल जाए और वह सूद पर लगाए तो ठीक होगा?

श्री कर्पूरी ठाकुर: आप तो धार्मिक पुरूष हैं और आप जानते हैं कि सूद लेना-देना कैसा होता है! यों तो यह प्रथा यहाँ चल रही है, अध्यक्ष महोदय, लेकिन यह चीज आर्थिक दृष्टि से और धार्मिक दृष्टि से देोनों ही खराब है। आर्थिक दृष्टि से सोचनेवाले से ज्यादा धार्मिक दृष्टि से सोचनेवाला सोचता है।

अध्यक्ष: इसलाम में सूद लेना और देना दोनों मना है।

श्री रामचरित्र सिंह: यहूदियों और मुसलमानों का कल्चर है कि सूद लेना और देना देोनों मना है, लेकिन हम लोगों के कल्चर में यह जायज है, सिर्फ ब्राह्मणों को कर्जा नहीं लेना-देना चाहिए और न सूद ही लेना-देना चाहिए।

श्री कर्पूरी ठाकुर: मैं यह कह रहा था कि अपने यहाँ एग्रेरियन इकोनाॅमी है, इसको देखते हुए ऐसे बिल का लाना अत्यावश्यक है। कहा जाता है कई माननीय सदस्यों ने बहस के दरम्यान में कहा है कि अगर यह पास हो जाएगा तो जमीन की पैदावार घट जाएगी, पर ऐसा कहना गलत है। अनुभव यह सिद्ध करता है, केवल अपने देश का अनुभव नहीं;; बल्कि संसार का अुनुभव सिद्ध करता है कि ऐसा कहना गलत है।

अध्यक्ष: अगर साधन दिए जाए और किसान परिश्रम भी करे तो पैदावार बढ़ेगी और यदि साधन नहीं मिलें या किसान परिश्रम न करे तो पैदावार घटेगी ही।

श्री कर्पूरी ठाकुर: जब किसान को साधन मिलेगा, जरिया मिलेगा, अच्छा बीज मिलेगा, उनके पास पैसे होंगे, खेती में परिश्रम कर सकेंगे और साधनों को जुटा सकंेगे, सिंचाई की व्यवस्था कर सकेंगे, तो पैदावार घटने वाली नहीं है, बल्कि बढ़ने वाली है। ताजा मिसाल जापान की हैैै। वहाँ जीमीन का बँटवारा हुआ, यहाँ तो अच्छी-से-अच्छी जमीन एक व्यक्ति के लिए 20 एकड़ रखी गई है, वहाँ के कानून के अनुसार एक परिवार को 7.15 एकड़, किसी को 2.15 एकड़ और बिरले ही को ऐसी भी था, जिसके लिए 10 एकड़ की व्यवस्था की गई। वहाँ के कानून से अपने यहाँ के कानून को मिलाने पर अधिक फर्क मालूम होता है।

श्री रामचरित्र सिंह: जापान का कानून कब का है?

श्री कर्पूरी ठाकुर: 1945-46 का। वहाँ जमीन सुधार का कानून लागू किया अमेरिकी सरकार के कमांडर मैकआर्थर नें। एक एकड़ में पैदा होता है जापान में 3560 पौंड, इटली में 4250 पौंड, हिंदुस्तान में 1050 पौंड।

इस तरह दूसरे देशों में हमारे यहाँ से साढ़े तीन गुना और चैगुना पैदा होता है एक एकड़ में। मैं उन माननीय सदस्यों से कहना चाहता हूँ, जिन्होंने इस पर विचार नहीं किया और कहा है कि जमीन का बँटवारा होने से पैदावार घटने को है। यह गलत है। जब साधन मिलेगा, परिश्रम होगा तो पैदावार घटेगा कैसे?

इसी खेत में जो इनसान काम करता है, उसका दिल खेत पर नहीं रहता है। वह खेत पर रहता है और उसका मन कहीं और रहता है। जब खेत में काम करनेवाला स्वयं जमीन का मालिक होगा तो उसको मन भी लगेगा, दिमाग भी साथ देगा। वह साधन भी जुटाएगा और जब ये सब बातें होंगी, तो निश्चित रूप से पैदावार बढ़ेगी, ऐसा मैं मानता हूँ। अभी हाल ही में एक पुस्तक प्रकाशित हुई है-

‘कंस्टीच्यूशनल इकोनाॅमी प्रोग्रेस आॅफ फाम्र्स’ जिसके लिखने वाले बड़े-बड़े विद्वान् हैं। इसके लिखने वाले सी.एन. गोकी, सी.एच. शाह, जी.जी. कारवे, गाडगिल जैसे विद्वान् थे। उस किताब को उद्धृत करने का समय अभी नहीं है, अगर समय रहता तो उस किताब को मैं रखकर बताता। उसमें लिखा है कि जमीन का बँटवारा किया जाए, उचित साधन दिया जाए, किसानों का को-आॅपरेटिव फाइनेंस हो, सिंचाई की व्यवस्था हो, जो फसल उपजे, उसका उचित दाम दिया जाए, इन सारी बातों का खयाल करके स्टेट पाॅलिसी बना करके साधनों का मुहैया करें तो पैदावार बढ़ने वाला है। उन लोगों ने देश के भिन्न-भिन्न हिस्सों में जाकर किसानों के पास जाकर देखा है। किसानों का नाम भी इस पुस्तक में लिखा है कि किन-किन किसानों के पैदावार में उन्नति हुई और किस-किस किसान के पैदावार की अवनति हुई। जिन्होंने काम नहीं किया, परिश्रम नहीं किया, वहाँ अवनति हुई और जहाँ-जहाँ परिश्रम किया, साधनों को मुहैया किया वहाँ उत्पादन में उन्नति हुई है। जमीन का बँटवारा होने के बाद साधनों को जुटा दिया जाए तो पैदावार में अवश्य तरक्की होनेवाली है।

अब सवाल उठाया जा सकता है कि सीलिंग कितने का हो? यहाँ प्रत्येक व्यक्ति के लिए अच्छी-से-अच्छी जमीन 20 एकड़ रखी गई है, यह गलत है। इसके दो आधार हो सकते हैं-एक सीलिंग होल्डिंग और दूसरा मैक्सिमम होल्डिंग।

अध्यक्ष: आप अपने अनुभव से बता सकते हैं कि सिंचाई की व्यवस्था आपकी सरकार करेगी?

श्री कर्पूरी ठाकुर: जो सरकार इसकी गारंटी नहीं दे सकती है, उसको हटा देना चाहिए, उसको गद्दी पर बैठने का हक नहीं है। आप जब इस पार्टी में नहीं रहेंगे तो शायद आप भी इसको हटाने के लिए तत्पर हो जाएँगे। (थपथपी)

1949 ई. में जब डाॅक्टर राजेन्द्र प्रसाद कांग्रेस के प्रेसीडेंट थे, उस समय जे.सी. कुमारप्पा के नेतृत्व में एक कमेटी बनी थी, जिसने रिपोर्ट दी थी और आधार बनाया था-फैमिली होल्डिंग का, फिर प्लानिंग कमीशन ने आधार बनाया मैक्सिमम होल्डिंग का। एक जोड़ा बैल हो, हाल हो, उनके परिवार में जितने सदस्य खेत में मेहनत करनेवाले हों, सोशलाॅजिकल और प्लाॅजिट दोनों यूनिट को मिलाकर, जितनी खेती कोई परिवार कर सकता है, उतना ही उसे मिलना चाहिए। यही कुमारप्पा का आधार था। प्लानिंग कमीशन का आधार रिजनेबुल स्टैंडर्ड आॅफ लीविंग खेतों का रहा। उनको कोई तकलीफ नहीं हो और गरीब नहीं बनने दिया जाए। उनका स्टैंडर्ड आॅफ लिविंग रिजनेबुल हो, इस बात का खयाल रखकर सीलिंग बनाई जाए। भारत के एक बहुत बड़े अर्थशास्त्री श्री के. गोविंदन ने मद्रास के तंतौर जिले के मडिगार्ड, सेंगीपट्टी और कल्याणपुर इन तीन गाँवों का सर्वे किया है। उसके आधार पर इनका कहना है कि सीलिंग का आधार फैमिली होल्डिंग नहीं होना चाहिए, मैक्सिमम होल्डिंग नहीं होना चाहिए। वे एक परिवार के लिए 15 से 20 एकड़ की सीलिंग चाहते हैं। याद रहे, एक आदमी पर 15 एकड़नहीं, बल्कि 15 से 20 एकड़ तक की सीलिंग एक परिवार के लिए हो। ये किसी पाॅलिटिकल पार्टी के आदमी नहीं हैं, ये अर्थशास्त्र के क्षेत्र में काम करनेवाले हैं। इनके जीवन का लक्ष्य है कि देश कैसे आगे बढ़ेगा, देश का आर्थिक विकास कैसे होगा? उनका काम रिसर्च करना है। वे 15 से 20 एकड़ क्यों चाहते हैं? रिसर्च करके वे इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि एक आदमी का सालाना आमदनी 501.74 नए पेसे होता है, वे कहते हैं कि इस आमदनी से एक खेतिहर मजदूर को रिजनेबुल स्टैंडर्ड आॅफ लिविंग हो सकती है। इसके अलावे खेती करने का साधन वहाँ उपलब्ध हो, तब उनका जीवनयापन ठिकाने से चलेगा। सरकार ने इस बिल में एक आदमी के लिए 20 एकड़ की सीलिंग रखी है, इसे मैं अन्यायपूर्ण मानता हूँ। यह गंभीर बात है, क्योंकि जमीन इतनी कम है और सरकार ऊँची सीलिंग रखती है। जहमने तो नोट आॅफ डिसेंट में लिखा है कि एक नंबर की जमीन की सीलिंग प्रति व्यक्ति के लिए 3 एकड़ होनी चाहिए। इस प्रकार 5 आदमी के परिवार के लिए 15 एकड़ ही सीलिंग हो। दूसरे नंबर की जमीन के लिए प्रति व्यक्ति पर 5 एकड़ की सीलिंग हो, इस प्रकार 5 आदमी के परिवार के लिए 25 एकड़ की सीलिंग होनी चाहिए। तीसरे नंबर की जमीन के लिए प्रति व्यक्ति 7 एकड़ की सीलिंग हो, इस प्रकार 5 आदमी के परिवार के लिए 35 एकड़ की सीलिंग हो। चैथे नंबर की जमीन के लिए, व्यक्ति पर 10 एकड़ की सीलिंग हो, इस प्रकार 5 आदमी के परिवार के लिए 50 एकड़ की सीलिंग हो। पाँचवे नंबर की जमीन के लिए प्रति व्यक्ति 12 एकड़ की सीलिंग हो, इस प्रकार 5 व्यक्ति के परिवार के लिए 60 एकड़ की सीलिंग हो। सरकार ऐसा फैसला कर सकती है, यह उसके हाथ में है। हम लोग विरोधी दल के लोग अल्पसंख्यक हैं। हमारे कहने से कुछ होनेवाला नहीं है, लेकिन हम सरकार को उचित बताना चाहते हैं। सरकार का जो उद्देश्य है, वह इस विधेयक से पूरा नहीं हो सकता है।

सरकार ने तीसरी पंचवर्षीय योजना की किताब मोटे-मोटे अक्षरों में निकाली है। इसमें पहली पंक्ति में कहा गया है कि ‘इंडियन मासेज की एडिक्वेट मिंस आॅफ लिवली हुड’ हम देना चाहते हैं। मैं सरकार से पूछना चाहता हूँ कि इस राज्य में 46 लाख खेतिहर मजदूर हैं। सरकार उनके जीने के लिए कौन सा साधन देने जा रही है? मैं इस बात का जवाब चाहता हूँ कि भूमिहीनों को जीने का वह कौन सा साधन देगी? आपके जावाब पर निर्भर करेगा कि हिंदुस्तान का भविष्य बनेगा या नहीं। यदि सरकार हमारी बातों को नहीं मानेगी तो तीसरी पंचवर्षीय योजना विफल हो जाएगी। सरकार जमीन लेकर गरीबों को देना चाहती है, लेकिन उसका जो हिसाब-किताब है, वह बिल्कुल अधुरा है। न जमीन ले सकती हैं और न दे सकती हैं। उनके जीने का दूसरा साधन भी सरकार नहीं दे सकती हैं इसमें सबसे अन्यायपूर्ण बात मैं एक्जंपशन के क्लाॅज को मानता हूँ- मैं तो चाहता हूँ कि इस पूरे चैप्टर को डिलीट कर दिया जाए। इसके जरिए तो सरकार जमीन जोतनेवालों तथा बँटाईदारों के हकों को समाप्त कर देगी। हमारी पार्टी के लोगों ने इसी बात को ध्यान में रखकर नोट आॅफ डिसेंट दिया है। यह सिद्धांतः विरूद्ध बात है। जमीन, जोतनेवालों की होनी चाहिए। इसके जरिए आपको जमीन नहीं मिलेगी और जमीन जोतनेवालों से आप जमीन छीन लेंगे। एक्जंपशन के क्लाॅज को रखकर जमीन देने का काम नहीं कर रही है, बल्कि जमीन छीनने का काम कर रही है।

आप अपने सिद्धांत को अगर सच बनाना चाहते हैं तो जमीन देने का काम करें, जमीन छीनने का नहीं। एक्जंपशन के चैप्टर के विषय में मैं जवाबदेही के साथ कहना चाहता हूँ कि यह जमीन छीननेवाली है, गरीबों को जमीन जानेवाली है, उन्हें जमीन से बेदखल करनेवाली और इसलिए इस चैप्टर को खत्म किया जाए।

दूसरे क्लाॅज में कहा गया है कि शुगर फैक्टिरियों को एक्जंप्ट किया जाए, महंतो को एक्जंप्ट किया जाए और इंस्टीट्यूशन को एक्जंप्ट किया जाए। क्यों किया जाए? शुगर फैक्टरियोंवाले को क्या शुगर केन मिलती नहीं? क्या यह गारंटी उनको नहीं कि जो फ्री और रिजर्व एरिया की ईख है, वे उनको नहीं मिलेगी? जब गन्ना उनको मिलने ही वाला है तो श्ुागर फैक्टरियों के मालिकों की एक्जंप्शन क्यों देना चाहते हैं? इसलिए मैं चाहता हूँ कि एक्जंपशन के क्लाॅज कोा इस बिल में नहीं रहना चाहिए। महंत लोगों को जितना कम कहा जाए, थोड़ा होगा। मैं नहीं चाहता हूँ कि महंतो का जो काला इतिहास है, उसको सदन के सामने रखकर वक्त बरबाद करें। मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि जो कुछ जमीन वहाँ की है, वह सार्वजनिक है, समाज की संपत्ति है; इसलिए उसके साथ खिलवाड़ नहीं किया जाए। महंतों की जमीन का दुरूपयोग न किया जाए और हर जगह एक्जंप्शन न किया जाए, महंत की संपत्तियों का। महेश्वर बाबू के सुझाव के साथ मैं हूँ, गरीबों को जो जमीन दी जाए, तो उनसे कीमत न ली जाए। जो जमीन सरप्लस आपको मिलती है, वह गरीबों को दीजिए और जो कीमत चुकानी है, वह सरकार अपने कोष से दे, गरीबों से वूसल करके न दे। यह न कहें कि 20 वर्ष या 30 वर्ष में आपको चुकता करना पड़ेगा। साथ-साथ इस बिल में ऐसे-ऐसे कम्पेंसेशन के क्लाॅजेज हैं, हम लोग सिद्धांतः कम्पेंसेशन के विरोधी हैं, लेकिन संविधान अगर गला दबाती है तो उसके सामने सर झुकाना ही है, इसलिए आप इसे रखिए; लेकिन हमने जो रेट आॅफ कम्पेंसेशन रखा है, उसे घटाइए। मैंने जैसे कहा कि जमीन सोशल प्रोपर्टी है, यह व्यक्तिगत चीज नहीं है, आज के कानून के अनुसार मिल्कियत का हक जमीन मालिक को दे दिया गया है; लेकिन जब मुआवजा देना ही है तो कम मुआवजा दीजिए। इसलिए नोट आॅफ डीसेंट में हम लोगों ने दिखलाया है कि मुआवजा कम दीजिए। आज टैक्स लगाकर उन गरीबों से रूपया वसूल करेंगे और कम्पेंसेशन का जो ऊँचा दर आप रखे हुए हैं, उसे आप निश्चित रूप से घटा दीजिए। अध्यक्ष महोदय, आज लोगा कहते हैं कि सब चीज आप गरीबों को देने जा रहे हैं। आप जमीन छीनने जा रहे हैं, हम तो इस पक्ष में है कि शहरवालों की आमदनी पर सीलिंग लगे। अरबन इनकम पर सीलिंग लगे, आज जो इंडस्ट्रीज हैं, फैक्टरियाँ हैं, पुरानी फैक्टरियाँ हैं, माइंस एंड मिनरल हैं, उनका नेशनलाइजेशन करके सीलिंग इनकम पर सीलिंग हो। क्या जनता पार्टी इसका समर्थन कर सकती है? सरकार धीरे-धीेरे चलती है, तो आगे बढ़ि़ए दबाव डालिए, आपका आंदोलन तेज होगा। आपके पास जनशक्ति इतनी हो कि सरकार को बाध्य होकर अरबन इनकम पर भी सीलिंग लगाना पड़े। इंडस्ट्रीलाइजेशन हो रहा है, इंडस्ट्रीज बढ़ रही हैं, फैक्टरियाँ खुल रही हैं, पुरानी फैक्टरियाँ हैं, उनका भी नेशनलाइजेशन हो; लेकिन यह सब आप तब करेंगे, जब सरकार पर दबाव डाला जाएगा। हम चाहते हैं कि जो लोग दलील देते हैं कि जमीन पर सीलिंग क्यों करते हैं, हम चाहते हैं कि इस तरह का काूनन बने कि हर चीज पर सीलिंग हो। कांग्रेस सरकार धीरे-धीेरे चलती है, इसलिए कि वह भी पूँजी वरिष्ठ सरकार है। आप ज्यादा कन्जर्वेटिज्म चाहते हैं, लेकिन स्वतंत्र वाले कन्जर्वेटिज्म कम चाहते हैं, सिर्फ कम और ज्यादा का फर्क है, मगर कन्जर्वेटिव दोनों है, इसलिए अरबन इनकम पर सीलिंग न लगाकर बहाना करके आप यह न कहें कि जमीन पर सीलिंग न लगाओ। विकास के जितने भी काम इस देश में हो रहे हैं, उससे ज्यादा-से-ज्यादा लाभ अमीरों को मिल रहा है। अपने देश के अर्थशा स्त्रियों ने कहा कि जब से पंचवर्षीय योजनाएँ शुरू हुई, विषमताएँ बढ़ गई हैं। अमीर ज्यादा और अमीर हो रहे हैं, गरीब जहाँ थे, वहीं के वहीं हैं, बल्कि और नीचे चले जा रहे हैं। श्रीमान् यू.एन. ढेबर ने आल इंडिया कांग्रेस की मीटिंग में कहा कि विषमताएँ बढ़ रही हैं। मैं आपको एक बहुत मजेदार रिपोर्ट रूरल क्रेडिट सर्वे रिपोर्ट, जिसके चेयरमैन श्री देशमुख थे कि राय सुनें। उनका कहना है कि तकाबी लोन जो लोगों को दिया जाता है, वह बड़े-बड़े खुशहाल लोगों को दिया जाता है। सर्वे रिपोर्ट से पता चलता है कि राज्य में 34.5 परसेंट बड़े खेतहार को मिला और 58.1 प्रतिशत बड़े और लार्ज कल्टीवेटर को मिला और 32.1 प्रतिशत मिडियम कल्टीवेटर को मिला और 9.8 प्रतिशत छोटे-छोटे खेतिहरों को तकाबी लोन मिला। लैंडलेस को कुछ नहीं मिलता है, जिनके पास जमीन नहीं है, उसको तकाबी लोन नहीं मिलता है। नौकरी भी उन्हीं लोगों को मिलती है क्लास 1, क्लास 2 का पोस्ट, जिनके पास काफी जमीन है। बड़े लोग हैं। यह बात दूसरी है कि चंद लोगों को उनके मेरिट पर, अच्छी नौकरी मिल गई हो। तो मेरे कहने का मतलब यही है कि जिनके पास साधन है, जमीन है, उन्हीें को ही अच्छी नौकरी, तकाबी लोन पर्याप्त मात्रा में मिलता है। जिनके पास काफी जमीन है, उनको बड़े-बड़े शहरों में मकान भाड़ा लगाने के लिए राजनीति में भी उन्हीें लोगों को ऊँचा स्थान चाहिए, जिनके पास काफी जमीन है। जिन्हें साधन है, उन्हीं को तकाबी लोन मिला है। लैंड इम्प्रूवमेंट के लिए कर्ज मिलता है। लैंड रिक्लम करने के लिए उनको कर्ज मिलता है। यानी जितनी सुविधा है, उनको मिलना चाहिए। गरीबों को कुछ नहीं मिलना चाहिए। उनके मुँह पर ताला लगा देना चाहिए। मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि ऐसा क्यों? मैं आपको बतलाना चाहता हूँ कि कैपिटल फार्मेंशन कहाँ होता है? हमारे पास रूरल क्रेडिट सर्वे की रिपोर्ट है, उसमें लिखा हुआ है कि 10 प्रतिशत बिग कल्टीवेटर्स हैं और 20 प्रतिशत लार्ज कल्टीवेटर्स हैं। बिग कल्टीवेटर्स बहुत ज्यादा जमीन रखनेवाले हैं और उसके बाद मिडियम कल्टीवेटर्स आते हैं। 20,25,30 एकड़ जमीन रखते हैं। जो बिग कल्टीवेटर्स 10 प्रतिशत हैं, उनके पास 30 एकड़ जमीन बोने लायक है। उनके यहाँ कैपिटल फार्मेंशन 40 प्रतिशत होता है। जो 20 प्रतिशत लार्ज कल्टीवेटर्स हैं, उनकी जमीन 28 प्रतिशत बोने लायक हैं और उनके यहाँ कैपिटल फार्मेंशन 27 प्रतिशत होता है। इसको रूरल क्रेडिट सर्वे और अर्थशास्त्र के विद्वानों ने दिखलाया है कि वे ज्यादा पैदावार नहीं कर सकते हैं। गरीब किसान ही, जिनके पास जमीन नहीं है, वे ही ज्यादा पैदावार कर सकते हैं। बड़े किसानों को यह संतोष है कि उनको ज्यादा रेंट मिलेगा। इसलिए वे ज्यादा पैदा करने पर ध्यान नहीं देते हैं। उनको सिर्फ इसकी परवाह नहीं है, उनको परवाह इसी की है कि वे जमीन के मालिक बने रहें। मैं आपको एक मजेदार बात जेंटिलमैंन किसको कहते हैं, कहना चाहता हूँ। ‘हेरल्ड लास्की’ ने अपनी किताब 'The Danger of being a Gentleman' में लिखा है-

"The political failure of the gentleman, in a word, is that he had not the imagination to perceive that the inevitable accompaniment of political democracy would be the demand for social equality." यह मानी हुई बात कि ‘जेंटिलमैन’ जिनका वर्णन हेरल्ड लास्की ने किया है, वे सचमुच में नहीं चाहते हैं कि जीमीन की पैदावार बढ़े या जीमीन का बँटवारा हो। आज हंगर और स्टावेंशन की बात होती है। इसका कारण यह नहीं है, जमीन की पैदावार कम होती है, बल्कि जमीन की पैदावार इसलिए कम है कि डिस्ट्रब्यूशन और आर्गेनाइजेशन की जो व्यवस्था है, वह ठीक नहीं है। आज 16 मिलियन एकड़ जमीन संसार में है, जिसमें 2 मिलियन एकड़ जीमीन खेती लायक है। न्यूट्रीशन कमेटी की सिफारिश के आधार पर यू.एन.ओ. के एक्सपर्ट ने लिखा है कि दुनिया के दो-तिहाई लोगों को बैलेंसड डायट नहीं मिलता है। उन्होंने यह भी लिखा है कि हर इनसान को बैलेंसड डायट मिलना चाहिए। अभ्ज्ञाी दुनिया की आबादी तीन अरब है, जिसमें से दो अरदब लोगों को बैलेंसड डायट नहीं मिल रहा है। डायट क्वांटिटी और क्वालिटी दोनों में खराब और कम रहता है। मैं उनकी सिफारिश को पढ़कर सुना देता हूँ- "Authorities on agriculture and nutrition, studying the correlation of area cultivated and food supply in the light of modern knowledge of nutrituion have estimated that about two acres per person will supply the indispensable elements of a rational diet. Cultivation according to that ratio would use one-forth of the world's arable land. As yet, the area cultivated has not reached 2 million acres, an eighth of the earth's natural possibilities. Clearly hunger and famine do not result from any natural law''' Essentially, it is not a problem of production at all, but rather one of distribution." यह डिस्ट्रिब्यूशन का सवाल है, केवल प्रोडक्शन का सवाल नहीं है, इसलिए हम कहना चाहते हैं, जो बिल इस सरकार ने पेश किया है और इस सदन की स्वीकृति उस पर चाहती है, उसमें अमेंडमेंट लाए, उसमें चेंज लाए और ऐसा लाए, जिससे सचमुच में 12 लाख एकड़ के बदले 31 लाख, 35 लाख या 40 लाख एकड़ जमीन मिल सके और उसका बँटवारा गरीबों में किया जा सकंे।

श्री शकूर अहमद: क्या आप चाहते हैं कि इतना ही क्वेनटम कर दिया जाए; जिससे दो एकड़ जमीन पर कैपिटा मिल जाए?

श्री कर्पूरी ठाकुर: इसका कैलकुलेशन तो मैंने नहीं किया है, इसे मैं थर्ड रीडिंग के समय बतला सकता हूँ कि कितना क्वेनटम रखा जाय, जिससे सबको मिल जाए। इससे क्या स्थ्ाििति पैदा हो सकती है? मेरा अपना खयाल है कि अगर हर किसान पर, हर खेतिहर मजदूर पर दो एकड़ बैठाया जाए तो यह प्राॅब्लम साॅल्व (हाल) हो कसकता है; लेकिन फिर किसी परिवार को बीस या वपच्चीस एकड़ नहीं रह जाएगा।

श्री शकूर अहमद: यहाँ अभी करीब दो करोड़ एकड़ जमीन पर खेती होती है।

श्री कर्पूरी ठाकुर: अभी करीब दोा करोड़ सत्ताईस लाख एकड़ जमीन पर खेती होती है और लगभग 16 और 17 लाख एकड़ जमीन और ऐसी है, जिसमें खेती हो सकती है। जैसाकि सरकारी रिपोर्ट से पता चलता है; लेकिन यह जमीन करीब 30 या 32 लाख एकड़ के करीब है। कम-से-कम 15-16 लाख एकड़ जमीन तो और ऐसी जरूर है, जिस पर खेती हो सकती है।

श्री शकूर अहमद: आबादी भी तो यहाँ की चार करोड़ से ऊपर है?

श्री कर्पूरी ठाकुुर: आबादी तो इतनी है, उसमें बच्चे भी हैं, इसलिए वयस्क स्त्री और पुरुरूषों की संख्या कम ही होगी। अगर दो-दो एकड़ फी आदमी रखा जाए तो समस्या हल हो सकती है, लेकिन सबको 15-20 एकड़ नहीं हो सकता है। इस सवाल पर मैं जाना ठीक नहीं समझता हूँ। इसका हल ग्रामीकरण है, समाजीकरण है। यदि दो-दो एकड़ ही रखा जाए तो इससे भी लोग जो खेती करेंगे, अच्छी तरह से उन्नहें जीने के लिए, खुशहाली से हरहने के लिए मुनासिब होगा। दो एकड़ जमीन ही यदि सब साधन के साथ मिल जाए तो काफी है। मैं आपनी बात नहीं कहता, मैं तो जो विशेषज्ञ हैं और उन्होंने तंजार डिस्ट्रिकट में सर्वे करके यह कहा था, उनकी बात कह रहा हूँ। इसलिए मैं निवेदन करूँगा कि आप इस बिल में उचित संशोधन कीजिए। मैं उन सब क्लाॅजों का नाम गिनाना चाहता हूँ, जिसमें उचित संशोधन की जरूरत हैे।

अध्यक्ष: इसे आप जब संशोधन पर विचार करने का समय आए तो कहेंगे।

श्री कर्पूरी ठाकुर: जी अच्छा, मैं छोड़ देता हूँ।