(दिनांक: 16 अप्रैल, 1963)


विषय: राहुल सांकृत्यायन के निधन पर शोक-संवेदना प्रकट करने के क्रम में।

श्री कर्पूरी ठाकुर: अध्यक्ष महोदय, स्वतंत्रता संग्राम के सैनिक, मानवता के पुजारी, अपूर्व पुरातत्त्ववेत्ता, महान् भाषा विज्ञानवेत्ता और हिंदी साहित्य के महारथी पंडित श्री राहुल सांकृत्यायन के निधन से आज हम सभी मर्माहत हैं। जो लोग भारत के राजनीति, विशेषकर बिहार के राजनीतिक आंदोलन से संबंध रखते हैं, उनको पता है कि प्रारंभ में साहित्य साधाना के साथ-साथ राहुलजी राजनीतिम गतिवधि में, प्रगतिशीली आंदोलनों में, किसान-मजदूर आंदोलन में गहरी दिलचस्पी रखते थे। हमने देखा है कि 1937 ई., 1938-39 ई. और 1940 ई. में बिहार में जो जोरदार किसान आंदोलन भिन्न-भिन्न जिलों में हो रहा था, उनके राहुलजी किस प्रकार क्रियाशील होकर भाग लिया करते थे, जेल यातना भोगते थे। सप्ताहों तक जेल अधिकारियों के अन्याय के विरुरूद्ध अनशन किया करते थे। हम जहाँ राजनीतिक क्षेत्र में राहुलजली को पाते हैं, वहाँ यह निर्विवाद है कि उनका सर्वोन्मुखी विकास साहित्यिक क्षेत्र में हुआ था। वे ज्ञान के पिपासु थे, ज्ञान की पिपासा ने उन्हें बाध्य किया था कि न केवल भारत की भिन्न-भिन्न भाषाओं का ज्ञान प्राप्त करें, बल्कि बहुत सारी विदेशी भाषाओं का भी वे परिश्रमशीलता और अध्यवसाय के द्वारा 36 भाषाओं का ज्ञान प्राप्त करें और भिन्न-भिन्न देशों का पर्यटन करें इस कारण उन्हें न केवल भारत ने ही मान्यता दी, बल्कि अंतरराष्ट्रीय जगत् ने भी। वे एक निर्भीक लेखक थे, गंभीर विचारक थे और हिंदी भाषा के अन्नन्य पुजारी थे। मुझे याद हैे दरभंगा में प्रांतीय साहित्य सम्मेलन हो रहा था। कुछ वर्षों पहले, जिसमें भारत के भिन्न-भिन्न प्रांतों के विद्वान् एकत्र हुए थे। वहाँ एक पुस्तक के बारे में उन्होंने उल्लेख किया तो मिथिला के एक वि़द्यार्थी ने कहा कि यह फोर्थ क्लास की पुस्तक है, इस पर राहुलजी ने कहा कि यह चैथे वर्ग की पुस्तक है। जब वे बोलते थे तो इस बात का विचार रखते थे कि हिंदी भाषा के शब्दों का ही प्रयोग किया जाए। पूसा में आज से 25 वर्ष पहले अखिल भारतीय किसान सम्मेलन हो रहा था और वहाँ लगभग 50,000 किसान उपस्थित थे, लेकिन उस सम्मेलन में उन्होंने अपना भाषण भोजपुरी भाषा में दिया था।

जहाँ वे हिंदी के अन्यतम पुजारी थे, वहाँ साथ-ही-साथ भोजपुरी के भी। सचमुच में परिश्रम, प्रतिभा एवं बुद्धि का समन्वय राहुलजी में था।ं 16-17 घंटे तक बैठकर कलम चलाते रहते थे, काम करते रहते थे, दिन-रात उनके लिए कुछ था ही नहीं। उनके जैसे महान् दार्शनिक, हिंदी भाषा के पुजारी को खोकर आज हम सब निर्धन हो गए है। जो अपूरणीय क्षति हुई है, मैं नहीं जानता कि उसकी पूर्ति निकट भविष्य में संभव है या नहीं। मानवता के उस पुजारी और साहित्य मंदिर के उस पुाजारी के प्रति हम अन्यतम श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और शोक-संतप्त परिवार के लिए संवेदना प्रकट करते हैं।