(दिनांक: 22 जून, 1970)
विषय: श्री रामराज सिंह द्वारा लाए गए भूमि-सुधार विधेयक 1970 पर वाद-विवाद के क्रम में।
श्री कर्पूरी ठाकुर: सभापति महोदय, इस सदन के माननीय सदस्य श्री रामराज प्रसाद सिंह ने जो जनमत जानने के लिए इस विधेयक को परिचारित करने का प्रस्ताव किया है, मैं उसका जोरदार विरोध करने के लिए खड़ा हुआ हूँ। इस सदन को और इस प्रांत की जनता को इस बात की जानकारी है कि 1967 ई. में महानिर्वाचन के बाद जब प्रथम संविद सरकार की स्थापना हुई तो जिन कार्यक्रमों को उसने कार्यान्वित करने के लिए स्वीकार किया था, उनमें से एक महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम टाटा की जमींदारी का खात्मा था। वे कार्यक्रम कागज पर सिर्फ रखे नहीं गए थे, बल्कि कई महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम कार्यान्वित भी किए गए थे। टाटा की जमींदारी का खात्मा के लिए मंत्री-परिषद् ने निर्णय भी किया था कि उसके अनुसार एक विधेयक पुनः स्थापित कर दिया जाए।
यह बात सही है कि उस समय राजनीतिक स्थिति ऐसी थी, जिसमें उथल-पुथल पैदा हुई। संविद सरकार को गिराने के लिए जिस तरह से बड़े पैमाने पर और कई तरह का प्रयास किया गया था। हम विरोधी दल को उस समय यह सफलता मिली कि यह विधेयक पारित होकर रहे, कानून का रूप लेकर रहे, वैसा नहीं हो सका। सच पूछिए तो टाटा की जमींदारी का खात्मा होना ही चाहिए। आज विधेयक विचारार्थ प्रस्तुत है। हम तो यही कहेंगे कि उन माननीय सदस्यों को, जो इसका विरोध कर रहे हैं और जनमत जानने के लिए प्रस्ताव कर रहे हैं, वे अपना प्रस्ताव वापस ले लें और आज ही इस विधेयक को इस सदन की राय से पास कर लें।
(थपथपी)
सभापित महोदय, ऐसा हम लोग क्यों कहते हैं? इसलिए कहते हैं कि 1950 ई. में जमींदारी का कानून पास किया गया था।ं बिहार की जनता ने इस कानून का स्वागत किया था। जो जमींदारी प्रथा के पक्ष में थे, उन्हें भले ही दुःख हुआ होगा, लेकिन बिहार की करोड़ों-करोड़ शोषित किसान, पीड़ित मजदूरों ने और पूँजीपति प्रथा के खिलाफ सभी लोगों ने जमींदारी कानून के पास होने का समर्थन किया था और इसका स्वागत किया था। कांग्रेस सरकार के लिए यह शर्म की बात थी कि 1961 ई. में इस जमींदारी कानून में एक नई धारा 2(बी) जोड़ दी गई। सरकार के प्रस्ताव के अनुसार इस सदन की कार्रवाई साक्षी है, जो किताब के पन्ने में है, सदन के पुस्तकालय में है और वे पन्ने इस बात के साक्षी हैं। धारा 2(बी) का जबरदस्ता विरोध किया गया, मत विभाजन की माँग भी की गई, पंडित विनोदानंद झा को ललकारा भी गया और चुनौती भी दी गई टाटा के हित के संरक्षण के लिए, लेकिन उस समय कांग्रेस प्रबल बहुमत में थी। हम लोग के जबरदस्त विरोध करने के बावजूद भी सरकार ने अपने संशोधन धारा 2(बी) को स्वीकार कराने में सफलता प्राप्त की थी। सभापति महोदय, सारे प्रांत से जमींदारी का खात्मा हो गया, तो फिर इस प्रांत में टाटा की जीमींदारी क्यों त्रिशुल पर रहे? ऐसा नहीं होना चाहिए और टाटा की जमींदारी को खत्म कर दिया जाए।
कोई भी अपवाद की बात हम नहीं कर सकते हैं। मुझकों अच्छी तरह से याद है, जब इसी कानून में धारा 2(बी) जोड़ा जा रहा था तो तत्कालीन मुख्यमंत्री, श्री विनोदानंद झा ने यह दलील दी थी, तत्कालीन राजस्व मंत्री श्री जानकी रमण मिश्र ने यह दलील दी थी कि टाटा एक औद्योगिक प्रतिष्ठान है, इसलिए इसे छोड़ देना चाहिए; क्योंकि उसमें जमीन और आसमान का फर्क हुआ करता है, व्यक्तिगत जमींदारी से, और इसीलिए धारा 2(बी) हम भूमि-सुधार कानून में जोड़ना चाहते हैं। यही दलील उनकी ओर से दी गई थी। हम लोगों ने उनकी दलील का खंडन किया था। हम लोगों ने कहा था कि जमींदारी किसी व्यक्तिगत जमींदार की हो या किसी औद्योगिक प्रतिष्ठान की, जमींदारी ही है और इसका खात्मा निश्चित रूप से होना ही चाहिए। हमारे मित्र श्री रामराज प्रसाद सिंह ने यह सवाल उठाया है कि टाटा की जमींदारी छीन ली जाएगी तो टाटा नगर, जो आज स्वच्छ नगर है, संुदर नगर है, वह नगर कुरूप हो जाएगा, गंदा बन जाएगा। पता नहीं श्री रामराज सिंह ऐसी दलील क्यों देते हैं, क्यों वे समझते हैं कि आजकल इस प्रांत में कांग्रेसी सरकार ने जिस तरह से प्रांत का संचालन किया है, जिस तरह से नगरों को गंदा बनाने का कमा किया है, जिस तरह से प्रांतों में गरीबी और गैर-बराबरी बढ़ाने का काम किया है, जिस तरह से बेकारी और भ्रष्टाचार बढ़ाने का काम किया है, क्या उसी तरह से आगे आनेवाली दूसरी सरकार भी करेंगी? वे भी वैसा ही काम करेंगी शायद ऐसा ही वे मानते हैं। तो उनको पता नहीं है कि ‘‘सितारों से आगे जहाँ और भी है।’’ उन्हें मालूम होना चाहिए कि और लोग भी हैं। हमारे प्रांत की दशा बिगड़ चुकी है, उसको बनाना चाहते हैं और सुंदर ढंग से बनाना चाहते हैं, इसलिए चिंता की कौन सी बात है? हम ऐसा नहीं मानते हैं। पूँजीपतियों की सरकार होगी, जो औद्योगीकरण निजी रूप से चाहते हैं, हम इसमें विश्वास नहीं करते हैं। जो पूँजीवाद में विश्वास करते हैं, वे समाजवाद में विश्वास नहीं करते हैं। हमारा विश्वास है कि पूँजीवाद के जरिए नए भारत का निर्माण नहीं हो सकता है। गरीबी और गैर-बराबरी का खात्मा नहीं हो सकता है और न हिंदुस्तान में समाजवादी समाज की रचना ही हो सकती है। इसलिए हम पूँजीपतियों का समर्थन क्यों करेंगे, हम टाटा का समर्थन क्यों करेंगे और टाटा की जमींदारी का समर्थन क्यों करेंगे? हम आपसे कहना चाहते हैं कि यह जो बिहार सरकार रही है, केंद्र की सरकारी रही है, वह एक तरह से चेरी रही है, टाटा की, बिड़ला की, पूँजीपतियों की। टाटा परिवार की कुल दौलत लगभग 650 करोड़ की है, जबकि हमने अपना बजट पास किया है, हमारा बजट बिहार सरकार का बजट, जिससे साढ़े पाँच सौ करोड़, बिहार की जनता का भाग्य जिस सरकार के जरिए संचालित होता है, निर्मित होता है, उस सरकार का बजट लगभग 500 करोड़ का है। यह दुर्भाग्य की बात है। हमारे देश का दुर्भाग्य है कि ऐसी व्यवस्था हमारे यहाँ चल रही है।
जो सिलसिला हमारा चल रहा है और जिस पूँजीवादी व्यवस्था कायम करने की चेष्टा की जा रही है, बल्कि पिछले बीस वर्षों में इस पूँजीवादी व्यवस्था की जड़ को मजबूत करने की जो चेष्टा की गई, उसको खत्म करने की व्यवस्था आज हो रही है। सतरह, अठारह वर्ष पहले श्री अशोक मेहता ने एक किताब लिखी थी, जिसमें उन्होंने लिखा कि भारत में असली मालिक कौन हैे? वह असली मालिक यहाँ के पूँजीपति हैं, सामंतवादी हैं और जो इस देश का संचालन कर रहे हैं, जिनकी मुट्ठी में हिंदुस्तान है और जिनकी मुट्ठी में पचपन करोड़ जनता है, तो ऐसे पूँजीपति को, ऐसे सामंतवाद को हम एक क्षण भी सहन करने को तैयार नहीं हैं। आज हमें एक क्षण में फैसला करना चाहिए कि एक दिन के लिए भी अब टाटा की जमींदारी को बरदाश्त नहीं करें। इन्हीं चंद शब्दों के साथ में संशोधन प्रस्ताव का विरोध करता हूँ और इस बिल का समर्थन करता हूँ।