(दिनांक: 7 जुलाई, 1977)
विषय: शोक-संवेदना स्वर्गीय अंबिका प्रसाद सिंह के प्रति।
श्री कर्पूरी ठाकुर: अध्यक्ष महोदय, यह अत्यंत दुःख का विषय है कि कल अचानक अंबिका बाबू का दिल का दौरा पड़ने के कारण देहांत हो गया।ं मेरा खयाल हैे कि किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि अंबिका बाबू इस तरह मिनटों में इस संसार सेें चले जाएँगे। कल 9 बजे समय निर्धारित था, उनसे बातचीत का मेरे साथ। लोकसभा के सदस्य श्री दिग्विजय नारायण सिंहजी और अंबिका बाबू से मैं बातचीत करने दिग्विजय बाबू के घर पर गया। ठीक 9 बजे मैं पहुँचा। दिग्विजय बाबू वहाँ नहीं थे। मैंने सत्येंद्र बाबू के आवास पर टेलीफोन लगाया। वहाँ से सूचना मिली कि अंबिका बाबू अब नहीं रहे, मैं दौड़ते हुए उस होटल में गया, जहाँ वे एक सप्ताह से ठहरे हुए थे। जब उनको मैंने देखा तो लगा कि वे सो रहे हैं, न कि मृत्यु अवस्था को प्राप्त हुए हैं। मुझे, वहाँ अंबिका बाबू के साथ जो थे, उन्होंने सूचना दी कि साढ़े सात बजे तक उन्होंने कई मित्रों से बातचीत की थी टेलीफोन से और पटना में भी, उन्होंने टेलीफोन लगाया था तथा मित्रों से उनकी बातचीत हुई थी। सचमुच केवल मैं नहीं स्तंभित हुआ, बल्कि जिस किसी ने सुना दिल्ली में या पटना में, पूरे राज्य में उनकी मृत्यु के संवाद के सभी लोग स्तंभित हो गए थे। लगा, जैसे अँधेरा हुआ हो, एक दैवी आफत आई हो, जिसका शिकार हुए अंबिका बाबू। अध्यक्ष महोदय, आपने ठीक ही कहा कि उन्होंने छात्र-जीवन से ही राजनीति में भाग लिया था।ं जो उनके साथ काम करनेवाले लोग थे, उनमें इस समय विरोधी दल के नेता सामने बैठे हुए हैं। छात्र-जीवन में, छात्र-आंदोलन में साथ-साथ ये भी काम करते थे।
कल श्री बलिराम भगतजी से बातचीत हुई थी, तो उन्होंने कहा कि 1942 की क्रांति में बहुत दिनों तक वे दोनों फरार रहे थे और साथ-ही-साथ फरार रहकर काम करते थे। छात्र-जीवन से उन्होंने कांग्रेस में रहकर, छात्र संगठन में जो शुरू में स्टूडेंट फैडरेशन के नाम से मशहूर था, बाद में 1941 ई. में स्टूडेंट फैडरेशन दो हिस्से में बँट गया, पहला स्टूडेंट फैडरेशन और दूसरा स्टूडेंट्स कांग्रेस रहा। स्टूडेंटस कांग्रेस में रहकर वे काम करते थे और काफी सक्रिय थे। जब 9 अगस्त, 1942 ई. को ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का आंदोलन चला तो उस आंदोलन में अंबिका बाबू कूद पड़े और फरार रहकर काम करते रहे और फिर जेल में रहकर यातना भोगे। जेल से जब छूटकर आए तो काॅलेज में पढ़ने लगे, लेकिन छात्र जीवन में वे कांग्रेस में पूर्ण सक्रिय थे और छात्र नेता के रूप में आंदोलन में हाथ बँटाते रहे। 1952 ई. के आम चुनाव में आए, जैसाकि आपने जिक्र किया कि इस सदन के सदस्य निर्वाचित हुए, फिर 1957 ई. और 1962 ई. में भी वे इस सदन में सदस्य बनकर पहुँचे। शुरू में उप-मंत्री या राज्य मंत्री नहीं बने, एक साधारण सदस्य थे। मैं भी 1952 ई. में निर्वाचित होकर आया था। हम देखते थे कि वे वाद-विवाद में सक्रिय होकर भाग लिया करते थे। केवल यों ही ऊपर-ऊपर भाषण नहीं दिया करते थे, मेहनत करते थे, तैयार होकर आते थे और जब बोलते थे तो अधिकार के साथ बोलते थे। उनकी क्षमता और गुणों को देखकर उन्हें उप-मंत्री, वित्त विभाग का पद दिया गया था। इन्होंने उस पद पर रहकर जिम्मेदारी के साथ काम किया था, जिसके फलस्वरूप राज्यमंत्री बनाए गए थे। फिर इस बार जब चुनाव हुआ, जैसा आपने कहा, वे इस सदन के सदस्य के रूप में हम लोगों के साथ चुनकर यहाँ आए। अंबिका बाबू राजनीति में भाग लिया करते थे और प्रांत के सार्वजनिक जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान उनका हो गया था। इतनी ही बात नहीं है-जिन लोगों के साथ उनकी मित्रता होती थी, वे पूरी कोशिश करते थे मित्रता को निभाने के लिए। वे बड़े अच्छे मित्र थे और मित्र के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहते थे। ठीक ही कहा है तुलसीदास ने-
‘‘धीरज धर्म मित्र अरू नारी,
आपातकाल परखिए चारी।
आपत्ति के दिनों में ही मित्र की पहचान होती है और उस परीक्षा में अंबिका बाबू खरे उतरते थे, इसमें कोई संदेह नहीं। वे व्यक्तिगत संबंध को भी मधुर बनाकर रखने का प्रयास करते थे, न केवल अपने दल के अंदर बल्कि दूसरे दल के साथ भी। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ कि यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव हैं भिन्न-भिन्न शैक्षणिक संस्थाओं से भी उनका संबंध था और बहुत लोगों का व्यक्तिगत काम भी कर दिया करते थे। ऐसे व्यक्ति एकाएक हम लोगों के बीच से उठ गए, यह हम लोगों के लिए दुर्भाग्य काी विषय है। उनकी मृत्यु अचानक ही नहीं हुई, बल्कि असामयिकि हुई। वे 53 वर्ष के थे। उनकी सेवा, योग्यता का लाभ इस प्रांत को बहुत मिलता, लेकिन दुर्भाग्य है कि वे नहीं रहे। हम लोगों को तो संतोष करना ही पड़ेगा, मृत्यु पर किसी का बस नहीं है, जो आया है, वह एक दिन जाएगा ही। वे हम लोगों के बीच से चले गए-हमने जैसा कहा और आपने जैसा कहा कि इस प्रांत के सार्वजनिक जीवन में जो क्षति हुई है, उसकी पूर्ति अत्यंत कठिन है। मैं दिवंगत आत्मा के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ और उनके शोक-संतप्त परिवार को अपनी ओर से, सदन की ओर से संवेदना भेजता हूँ। मुझे आशा और विश्वास है कि इनके परिवार के सदस्यगण इस विपत्ति को धैर्य के साथ सहन करेंगे। साथ ही ऐसी अपेक्षा है कि व्यक्ति इस संसार से चला जाता है, लेकिन उसका जो गुण है, विशेषता है, उन पर हम लोगों को विचार कर पुलकित होना चाहिए। अवगुणों को छोड़कर, गुणों का अनुकरण करने का प्रयास करना चाहिए। इन्हीें गुणों से इनसान कुछ सीख सके, कुछ ले सके तो इनसान निश्चित रूप से आगे बढ़ सकेगा। इन्हीं शब्दों के साथ मैं दिवंगत आत्मा के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ और उसकी शांति के लिए भगवान् से प्रार्थना करता हूँ।