(दिनांक: 9 दिसंबर, 1980)


विषय: बिहार सरकार के शिक्षा राज्यमंत्री श्री हरदेव प्रसाद के निधन के पश्चात् षोक-संवेदना व्यक्त करने के क्रम में।

श्री कर्पूरी ठाकुर: अध्यक्ष महोदय, स्वर्गीय श्री हरदेव प्रसादजी के बारे में आपेने और सभा-नेता ने जो भावना एवं उद्गार व्यक्त किया है, मैं उसके साथ हूँ। आज से 15-20 दिन पहले किसी ने यह कल्पना भी नहीं की थी कि हरदेव बाबू हम लोगों के बीच से इतनी जल्द गुजर जाएँगे। दुर्भाग्यवश वे एक असाध्य रोग का शिकार हुए, न तो पटना का अस्पताल ही उन्हें बचा सका और न दिल्ली स्थित देश का सर्वोत्तम अस्पताल हीं। छात्र जीवन में उनके ऊपर जिन दो व्यक्तियों का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा था, उनके एक थे अपने देश के महान् नेता पंडित मदन मोहन मालवीयजी और दूसरे थे महान् समाजवादी विचारक एवं नेता श्री आचार्य नरेंद्र देवजी। स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने की प्रेरणा उन्हें मुख्यतः पंडित मदन मोहन मालवीयजी से मिली थी और समाजवादी आंदोलन में सम्मिलित होने की प्रेरणा आचार्य नरेंद्र देवजी से मिली थी। मैं उनको निकट से जानता था। उनका सचमुच समाजवाद में अटूट विश्वास था। जो सच्चे समाजवादी होते हैं, वे दरअसल शोषितों, दलितों और पीड़ितों के लिए ही हुआ करते हैं। उनके उद्धार के लिए ही हुआ करते हैं, वे सामंतों और पूँजीपतियों के लिए नहीं, बल्कि उनके कट्टर विरोधी होते हैं। उन्होंने जो भी राजनीतिक काम-धाम किया, वह समाजवादी दृष्टि से किया और सच्चे समाजवाद के सच्चे उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया, नकली समाजवाद के लिए नहीं। हमारे साथी लोग कहते हैं कि वे जब राज्य मंत्री के रूप में काम करने लगे, तो अकसर पार्टी के भेदभाव के ऊपर उठकर काम करते थे। वे केवल सत्ताधारी दल के लोगों का ही काम नहीं करते थे, बल्कि विरोधी दल के सदस्यों का काम भी उसी तत्परता से करते थे, जिस तत्परता से अपने दल के सदस्यों का काम करते थे। इससें यह मालूम होता है कि वे निष्पक्षता एवं तटस्थता के साथ सरकारी कामकाज करने के लिए सिद्धांत में विश्वास करते थे। अध्यक्ष महोदय, मैंने अनेक बार उन्हें बहुत नजदीके से परखा था। जब वे समाजवादी दल में थे और अब वे कांग्रेसी बनकर सदन में आए, तब भी शोषित, पीड़ित वर्ग के जो लोग हैं, कमजोर और पिछड़े वर्ग के जो लोग हैं, उनके लिए अपने हृदय में वे उत्कट भावना एवं गहरी वेदना रखते थे। जब हम सरकार में थे और वे विरोधी दल में तो दलितों की समस्याओं के संबंध में मिलकर बहुधा विचार-मिवर्श किया करते थे। मुझे सुझाव देते थे और मुझसे सुझाव लेते थे। ऐसा मालूम पड़ता था कि वे दूसरे दल में रहते हुए भी सिद्धांत के प्रति निष्ठावान् हैं और उद्देश की पूर्ति के लिए कुछ करना चाहते हैं। वे सिद्धांत के लिए, आदर्श के लिए थे, ऐसा मैंने उनमें पाया था। मैंने यह भी पाया कि वे भद्र थे, अभद्र नहीं, सज्जन व्यक्ति थे, दुर्जन नहीं। आजकल जिस तरह के लोग समाज में बढ़ते जा रहे हैं, उस तरह के लोगों में स्वर्गीय हरदेव प्रसाद नहीं थे। यह एक दुःख का विषय है कि स्वतंत्रता संग्राम में जिन लोगों ने भाग लिया था, चाहे वे 1920-21 ई. के आंदोलन में भाग लिये हों, चाहे 1930-31 ई. के नमक सत्याग्रह एवं दमन विरोधी संघर्ष में भाग लिये हों, या सन् 1942 ई. की क्रांति में भाग लिये हो, उनमें एक-एक करके धीरे-धीरे सब उठते जा रहे हैं और ऐसा लगता है कि शायद वह दिन दूर नहीं, जब पुराने स्वतंत्रता सेनानियों में कोई भी हमारे बीच नहीं रह जाए। स्वर्गीय हरदेव प्रसादजी जैसे स्वतंत्रता सेनानी, निष्ठावान् कार्यकर्ता और सच्चे समाजवादी के निधन से न केवल यह सदन मर्माहत है, बल्कि सारा बिहार मर्माहत हुआ है।ं हम लोगों को दुःख है कि उनकी उम्र अभी इस दुनिया से जाने लायक नहीं थी, हमसे छीन लिये गए। उनकी दिवंगत आत्मा के प्रति अपनी ओर से श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ और उनके शोक-संतप्त परिवार के लिए संवेदना प्रकट करता हूँ।