भागवत झा ‘आजाद’

(मुख्यमंत्री)


माननीय अध्यक्ष महोदय, सम्माननीय सदस्यगण, यह आज हम लोगों का दुःखद, किंतु पुनीत कर्तव्य है कि हम अपने उन सहयोगियों को अपने श्रद्धा के सुमन चढ़ाएँ, जिन्होंने इस विधानसभा में, विधान-परिषद् में या लोक जीवन में महत्त्वपूर्ण निष्ठा के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वाह किया है। मुझे सौभाग्य नहीं मिला कि मैं इस सदन में अपने उन बंधुओं को देख पाता, लेकिन अपने व्यक्तिगत जीवन में इस सदन के बाहर उनसे मिलने और उनके कार्यकलापों से अवगत होने का मुझे सौभाग्य मिला है।

आज का बिहार, विदेह की यह भूमि वर्षांे-वर्षों तक, शताब्दियों तक आनेवाले महापुरुषों को याद करेगा, उन महापुरुषों में नाम रहेगा कर्पूरी ठाकुरजी का। कर्पूरी ठाकुर बिहार में हीं नहीं, बिहार की सीमा के परे और हमारी आजादी के और दूर आगे देश के सम्मानित नेता रहे। वह कर्पूरीजी, जो साधारण में असाधारण थे, जो सामान्य में असामान्य थे, जिन्होंने बिहार को गौरवान्वित किया, बिहार की जनता को उन पर नाज था, उसका एक लाल उसके अंदर से निकलकर ‘बहुजन हिताय और बहुजा सुखाय’ का योद्धा बनकर देश में जीवन का दर्शन दे रहा है, जो दर्शन बार-बार यह कह रहा है कि यह आवश्यकता है। इस भारत-भूमि में, जिन्होंने न्याय की ऐसी अर्थ-व्यवस्था की, जहाँ हर व्यक्ति को, दूर-दराज की कटोरा पकड़े बुढ़िया को जीवन की आवश्यकताएँ मिल सकें। बाल-सुलभ भोलेपन में कर्पूरी ठाकुरजी के अंतर्गत कर्म और वाणी, आचरण एवं चरित्र तथा संधर्ष व तेज का अद्भुत समन्वय था।

अद्भुत समन्वय था उनके व्यक्तित्व में उन गुणों का, जिन गुणों के कारण व्यक्ति महान् बनता है। समाजवादी आंदोलन के इस पुजारी को संस्कारित किया था विदेह की कर्ममय और तेजोमय भूमि ने। यज्ञशाला था वह पितौंझिया गाँव, जो आज भी संभवतः सभी नहीं जानते, मगर जानते हैंैं, जान गए हैं, मानते हैं, वह तीर्थस्थली बन गई है आज उनके कारण। और आज अपने लाल को खोकर वह ग्राम ही नहीं, यह प्रदेश ही नहीं, समाजवाद, यह देश मूक है, स्तब्ध है, मौन है। लोकसेवा को साधनामय जीवन बनाकर संस्कारित किया, उन्होंने इस जीवन को 1942 की क्रांति से। दृढ़ता और संकल्प दिया उनको जेल के शिकंजांे ने। बार-बार जेल यात्रा कर, आजादी के पूर्व और आजादी के बाद भी अनेक बार यात्रा कर उनको जीवन मिला। फौलादी उनके जिस्म को और उनके मन-प्राण को, जिसके कारण अगर यह कहा जाए, जो माखनलाल चतुर्वेदी ने कहा-

‘‘यह लाली है सरकार आपके कृपापूर्ण ‘जंजीरों’ के घर्षण से निकले मोती हैं।’’ और उन्हें सींखजों और जेल-जीवन के घर्षणों से यह मोती निकला, जिसके रूप पर, स्वरूप पर, गुण पर, वाणी पर हम सबों को नाज है। वे न केवल समाजवादी विचार और सिद्धांत के प्रणेता थे, बल्कि इस सिद्धांत को उन्होंने अपने जीवन के रूप में जीया। सारे जीवन में सिर्फ सिद्धांतों, विचारों, संकल्पों का प्रचार नहीं किया, बल्कि उनको अपने जीवन में उतारा, यह उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी।

बहुमूल्य मापदंड छोड़कर गए हमारे लिए, समाजवादी सिद्धांत के लिए और समाजवाद की पद्धति के लिए। उन्होंने तथाकथित समाजवाद के द्वैत-दर्शन को नहीं माना। द्वैत-दर्शन यह कि आचार एक, विचार दो, बल्कि उन्होंने अपनी कथनी और करनी में कोई भेद नहीं रखा। जो क्षण में, कण में और मन में समाहित होकर हमें युग-युगों तक उद्वेलित और प्रेरित करता रहेगा। निर्धनों, प्रताड़ित, उपेक्षितों और संघर्षरत जिंदगी को सँवारते रहे, जीवन भर उन्हीं के जीवन को सँवारने के लिए वे बराबर कभी सरकारी कार्यालयों में, कभी डगर में, गाँव में, शहर में फौज लेकर उन दलितों के लिए जूझते रहे। उन पिछड़े, उन दीन-दुःखी शोषितों और शासितों के पर्यायवाची बन गए। जीवन में स्वयं जीते हुए एक लीजेंड बन गए। वे इसलिए प्रेरणा के प्रतीक बनकर, आस्था के संबल बनकर हमें छोड़कर चले गए नील गगन में पथ बनाकर, लेकिन वे उस पथ को अमर कर गए।

अध्यक्ष महोदय, जीवन में हम सभी जीते हैं। दो प्रकार के व्यक्ति हैं, एक, जो संसार को पड़ाव मानकर अपना कर्तव्य करते हैं और कर्पूरी की नाव चले जाते हैं और दूसरे वे, जो जीवन को मंजिल मानकर जीते हैं, भोगते हैं, जीवन को और फिर उनकी चर्चा नहीं होती है। कामधेनु, उर्वशी और कल्पतरू की धरती के सम्मानशाली कामना करते नहीं हैं। ये लगाते बाग, ये खिलाते फूल, सुरभि से दर्शित भ्रमर, घूमते हैं, चूमते हैं प्राण देकर विश्व की नश्वर नदी पर नाव खेते हैं, उस पार जाने को, जहाँ से मृत्यु आती है।

और कर्पूरीजी उस मृत्यु की राह पर गए, लेकिन जीवन को अमर बनाकर, यह कहकर कि यह जीवन मृत्युंजयी है। ऐसे ही पुरुष के नाम से जीवन मृत्युंजयी होता है। वरना तो सभी कहते हैं, मृत्यु ही अंत में जीतती है। जीतता है वह मनुष्य कर्पूरी, जीतता है वह गांधी, जीतता है वह जवाहर, जीतती है वह लोकप्रिय इंदिरा, जिसने जीवन को अमर बनाया। आज ऐसे अमरपुत्र को, बिहार के अमरपुत्र को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। मौलिक विचार के प्रणेता, अध्ययनशील, चिंतन के अध्येता, जो आज राजनीति में कम दिखाई पड़ते हैं, लेकिन अपनी कार्य-व्यस्तता के बावजूद उन्हें लगात्मक संबंध था पुस्तकों से, विचारों से, पढ़ने से, जिसकी जरूरत हैं इसी कारण उनके भाषणों में कंठ-स्वर नहीं गूँजता था, उनके भाषणों में हृदय के स्वर की गुँजाहट मिलती थी। इसीलिए उनके भाषण में तथ्य, उनके भाषण में आँकड़े, लोक में, जल और थल में, बराबर स्मरण-शक्ति के सहारे चलकर गूँजते थे। अपने प्रतिद्वंद्वियों और प्रतिरोध को मजबूर करते थे समझने के लिए उन आँकड़ों को, उन सिद्धांतों को और उन भावनाओं को। इसलिए वे मन-प्राण को प्रभावित करते थे। वर्तमान को और भविष्य को गति देते थे। राह को आसान और मंजिल को नजदीक लाते थें संसदीय जीवन के गौरवमयी इतिहास में कौन बराबरी कर सकेगा उनकी? जब निर्माण हुआ आजादी प्राप्त करने के बाद प्रथम विधानसभा, तब से नौ विधानसभा तक लगातार उन्होंने विधानसभा को गौरवान्वित किया और विधानसभा ने उनको गौरवान्वित किया। लेकिन उतना ही उनसे इस विधानसभा को मिला।

संसदीय जीवन को उन्होंने भोगा ही नहीं, श्रम और शक्ति के सहारे इस जीवन को उन्होंने जीया। जीया अपने लिए नहीं, बल्कि प्रदेश के बड़े परिवार के लिए, जिस परिवार में दुःखी थे, भूखे थे, विपन्न थे, लेकिन उन्होंने अपना अधिक समय दिया उनके लिए, जिनको उनकी आकाँक्षा थी। 1967 के आम चुनाव से लेकर अंत तक रहे, बने उप-मुख्यमंत्री संविद सरकार में और फिर बने मुख्यमंत्री और फिर 1977 में मुख्यमंत्री बने। लेकिन इन सभी पदों को उन्होंने श्रम और साधना से तपस्वी के रूप में निर्वाह किया। वे गुण और व्यक्तित्व की खान थे, मगर सबसे बड़ा था उनका चरित्रबल। चरित्रबल की आज की राजनीति में बड़ी आवश्यकता है। उनका जनमत के प्रति प्रेम सतही और दिखावटी नहीं था, बल्कि वे इस जनमत के प्रेमी थे, हृदय के अंदर अटूट घने क्षणों से उठते थे, जिन क्षणों में उन्होंने उनके दर्दों को भोगा और जीया था, इसलिए अहंकार रहित, भ्रष्टाचार विरोधी, जन-जन हितैषी आम व्यक्ति की खाट और झोंपड़ियों पर सोनेवाले उस व्यक्ति पर किसी बड़े महल की उनकी पीठ पर थपथपाहट नहीं थी, किसी महल ने उन्हें आशीर्वाद नहीं दिया था।

किसी का सहारा नहीं लिया, किसी वंश का नामांकन उनको नहीं मिला था। मखमल का मृदुल मार्ग नहीं, अंगारों की राह मिली थी उनको। बड़े अंगारों की राह चलकर उन्होंने देश की पूजा की। ऐसे महान् पुत्र को, समाजवादी आंदोलन के महान् समर्थक को, देश ने समर्पित देशभक्त खो दिया, सार्वजनिक जीवन ने अपना महान् नेता खो दिया और आपने अपना एक सहयोगी खोया और मैंने अपना एक व्यक्तिगत मित्र खोया। मित्र, मुझे इच्छा थी, जब मैं यहाँ नेता बनकर आया, उनके साथ बैठता। एक जीवन को, एक राजनीति को समन्वयवाद का, कंसेंसस का एक नया रूप दे पाता, मगर मुझे वह अवसर नहीं मिला। इस अवसर के इस अनमनेपन, असंतुष्टि पर अपनी भूख और प्यास को लिये हुए मैं अपने उस महान् मित्र को श्रद्धांजलि देता हूँ। उस मित्र को, जिसने आजकल की राजनीति की दीवार इतनी खड़ी हो गई, जो आपस में मिलना नहीं चाहती है, कुछ करना नहीं चाहती, मगर कर्पूरीजी की राजनीति ने एक चहारदीवारी को तोड़कर अपने मित्रों के आँगन में गुलाब का सुगंधित फूल लगाया मैत्री का। इसलिए ऐसे मित्र को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ कर्पूरीजी को, जो मान और सम्मान, यश एवं अपमान, गौरव तथा गरिमा से दूर चले गए हैं। मगर युग को एक नया धर्म दे गए हैं। आज की राजनीति को नया अर्थ दे गए हैं। जिन शब्दों में मैंने उनको महाप्रयाण बाँसघाट पर विदाई दी थी, उन्हीं शब्दों में मैं उनको श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ-


‘‘महापथ पर तन-अर्पण की कथा अनोखी,
जाते राही राह अमर कर, कुंडल-कवच सदा जग चर्चित,
काम-धर्म को नया अर्थ दे, कालजयी चल दिए मार्ग पर,
नए देह को कितने हर्षित।’’


जहाँ भी हों, जिस जगह पर हों, उनकी कृपा हम पर रहे, इन्हीं शब्दों के साथ मैं उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।