दूसरा पत्र


दिनांक 09-01-1976

पूज्य बाबा,


मैंने 21 दिसंबर, 1975 को जो पत्र भेजा था, वह आपको मिला होगा। उसमें मैंने कई प्रश्न उठाए थे, लेकिन उनका उत्तर आपके 25 दिसंबर के प्रवचन में नहीं मिला। उत्तर के लिए मेरी प्रार्थना व्यर्थ गई।

25 दिसंबर को जो आपका मौन-भंग हुआ, वह तो बहुत अच्छा हुआ, परंतु आपसे आशा लगाए बैठे करोड़ों देशवासियों की जो आशा भंग हुई, वह सचमुच अत्यंत दुःखद है। बहुतों ने तो यहाँ तक उम्मीद बाँध रखी थी कि आपके मौन, आपके नाम पर लगाए गए ‘अनुशासन पर्व’ तथा अन्यायाचरण एवं जनतंत्र-हत्या में प्राप्त आपके अप्रत्यक्ष समर्थन से प्रधानमंत्री, स्वयं उपस्थित होकर आपात-अंत की घोषणा करेंगी। किंतु लोगों की आशाओं पर पानी फिर गया। आपसे तो प्रधानमंत्री अत्यधिक उपकृत र्हुइं, लेकिन उन्होंने आपका जरा भी ख्याल न किया। मगर, बाबा, शायद आशावादियों की आशा ही गलत थी, क्योंकि प्रधानमंत्री को आपात-अंत कभी करना भी होगा तो उसका श्रेय वह स्वयं लेंगी, न कि आपको या किसी अन्य को देंगी। एहसान इन्सान मानता है, शैतान नहीं, तानाशाह नहीं। आप भले न मानें, मैं प्रधानमंत्री को तानाशाह मानता हूँ।

खैर, प्रधानमंत्री से आशा नहीं पूरी हुई तो कोई बात नहीं, दुःख का विषय यह है कि आपसे भी घोर निराशा ही हाथ लगी। आप पूछेंगे, आपसे निराशा क्यों? यह इसलिए कि आपसे लोगों ने आशा की थी सत्य वचन की, स्थिति के सही विश्लेषण की, निर्भीक वाणी की, अन्याय के प्रतिकार के आह्वान की, किंतु आपका भाषण सत्य, सर्वोदय, गांधीवाद और लोकशाही के लिए वज्राघात के रूप में आया। मेरे जैसे लोगों ने सपने में भी आपसे ऐसी आशा नहीं की थी।

मैंने इस पर बहुत सोचा कि आखिर ऐसा क्यों? कारण तो कई हो सकते हैं, परंतु सबसे बड़ा कारण यह लगता है कि आपका सारा सम्मेलन और आयोजन राज-आश्रित था। भले ही आप शासन-मुक्ति की बात करते हों, लेकिन आपके सम्मेलन ने सिद्ध कर दिया कि आपका बहुत सारा काम-काज और आयोजन-नियोजन शासन-आश्रित है। यदि शासनाधिकारों ने सम्मेलन का लगभग सारा जिम्मा अपने ऊपर नहीं लिया होता और शेष व्यवस्थाएँ नहीं की होतीें तो शायद आपका सम्मेलन हो नहीं पाता। यही कारण है, यही रहस्य है कि आपातस्थिति के संबंध में आप जुबान नहीं खोल सके।

इमरजेंसी के समय में आपके अप्रत्याशित मौन पर प्रधानमंत्री ठीक ही कह रही होंगी, बाबा का‘मौनं सम्मति-लक्षणम्’। यह जन विख्यात बात है कि कौरवों के आश्रित होने के कारण ही द्रोण और भीष्म कौरवों के विरूद्ध नहीं जा सके। इंदिरा-शासन के साधनों से रचित सम्मेलन में इमरजेंसी के विरूद्ध बोलने की हिम्मत भला आप कैसे कर सकते थे? द्रोण और भीष्म से बड़े तो आप हैं नहीं।

बाबा आपने देखा होगा कि आपके मौन-भंग के कुछ ही दिन आगे-पीछे इंदिरा-सरकार ने तीन अध्यादेशों के द्वारा प्रेस की आजादी और अधिकारों पर ऐसी करारी चोट की जैसी अंग्रेजी राज ने भी कभी शायद ही की हो। आपने यह भीदेखा होगा कि आपके मौन-भंग के एक दो हप्ते बाद एक ‘शाही फरमान’ के जरिए संविधान के अनुच्छेद-19 को स्थगित कर दिया गया, जिसके फलस्वरूप केवल सप्त स्वातंन्न्य ही नहीं समाप्त हो हुए, बल्कि सरकार और सरकारी नौकरों द्वारा व्यक्ति के स्वातंन्न्य-हरण एवं प्राण-हत्या के मामले पर विचार तथा निर्णय करने के न्यायालयों के अधिकार भी लुप्त हो गए। आपने यह भीदेखा होगा कि आपके मौन-भंग के चार-पाँच दिनों के बाद ‘कामागाटामारू’ नगर में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में आपातस्थिति की अवधि को बढ़ानेवाला और एक वर्ष के लिए चुनाव स्थगित करनेवाला प्रस्ताव भी सर्वसम्मति से पारित हुआ। सबसे बढ़कर मार्क की बात यह है कि पूरे अधिवेशन में एक भी प्रतिनिधि ने किसी एक प्रस्ताव के विरोध में एक शब्द भी नहीं कहा, विरोध में हाथ उठाने की बात तो दूर रही। आपने यह भी सुना होगा कि अधिवेशन में शामिल होने वाले प्रत्येक प्रतिनिध और कार्यकर्ता के शरीर और सामानों की तलाशी के बाद ही उन्हें पंडाल में प्रवेश मिला। आप यह भी जान लें स्वयंसेवकों के स्थान पर स्वयंसेवकों की वरदी में पुलिस, सी.आर.पी. और गुप्तचर विभाग के लोग भारी संख्या में अधिवेशन में जवान तैनात थे। कांगे्रस के 90 वर्षों के इतिहास में निस्संदेह ऐसा अधिवेशन एक भी नहीं हुआ होगा। श्रीमती इंदिराजी ने साबित कर दिया कि उनके सामने दादाभाई नौरोजी, गोखले, तिलक, गांधी, नेहरू, पटेल, राजेन्द्र, राजाजी, मौलाना आजाद, सुभाष आदि सब झूठ (नाचीज) थे, क्योंकि उन महापुरूषों के सामने तो खूब डटकर विरोध और प्रस्तावों के विरुद्ध वोट होते थे, मगर आज किसके सिर पर शामत सवार है कि श्रीमती इंदिराजी का विरोध करे? आपने स्व-रचित प्रार्थना गीत में भगवान् के लिए जो अद्वितीय शब्द का प्रयोग किया है, वही उस अधिवेशन तथा श्रीमती इंदिराजी के लिए प्रयुक्त होना चाहिए। बाबा! क्या इतने पर भी आपको नहीं लगता है कि देश में क्या हो रहा है और देश कहाँ-किधर जा रहा है? मेरा खयाल, है, आपको जरूर लगता होगा, मगर आप कुछ बोलने से लाचार हंै। दुनिया के इतिहास से मैंने सीखा है कि सब से पहले तानाशाह अगर जनतांत्रिक ढाँचे से पैदा होता या होती है, अपने दल के अंदर जनतंत्र को समाप्त करता या करती है, पार्टी की अंदरूनी लोकशाही को खत्म करता या करती है, फिर बाद में देश के लोकतंत्र को और व्यक्ति की आजादी को, तो उसका विरोध होना चाहिए।

आपने अपने प्रवचन में कहा कि शासन और जनता को आचार्यों का ‘अनुशासन’ मानना चाहिए। इतिहास बतलाता है कि संतांे, महात्माओं, आचार्यों और गुरुओं का आदेश या अनुशासन जनता मान सकती है, सत्ता या शासन नहीं। और तो और, कृष्ण जैसे योगाचार्य का भी ‘अनुशासन’ दुर्योधन या कौरवों ने नहीं माना। मैं नहीं जानता, कृष्ण से बढ़कर आचार्य कौन हुआ है। संसार का इतिहास मंथन करने पर विरले अपवाद भले मिल जाएँ, जहाँ सत्ताधीशों ने आचार्यों का सुना हो।

किंतु सामान्य सत्य यही है कि शासन चाहे व्यक्ति का हो या वर्ग का, लोहा मानता है-शक्ति का, आचार्यों का नहीं। शक्ति हिंसक हो सकती है और अहिंसक भी। देश, काल, स्थिति और नायक के अनुसार शक्ति भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होती है। यदि आप यह समझते हैं कि इंदिरा-शासन आपकी सुननेवाला है या आचार्यों की, तो यह एक बड़ी भारी भूल है।

यह अत्यंत दुःख का विषय है कि आपने बिना ज्यादा सोचे-समझे यह बोल दिया कि वर्तमान सरकार के रहते भारत में न तो आज सत्याग्रह की आवश्यकता है और न शायद भविष्य में हो सकती है। ‘दिनमान’ तथा कई दूसरे अखबारों ने आपका भाषण इसी रूप में छापा था। मैंने जितना समझा है, सत्याग्रह शक्ति का ही एक रूप है-जनशक्ति का अथवा व्यक्ति की शक्ति का अहिंसक रूप। यह अन्याय के विरूद्ध संघर्ष का अहिंसक हथियार है। यह निर्विवाद है कि जुल्मी-जालिम विदेशी हो सकते हैं तो स्वदेशी भी, गोरे हो सकते हैं तो काले भी, दूर के हो सकते हैं तो नजदीक के भी, पुराने हो सकते हैं तो नए भी। आपके भाषण से आभास मिलता है कि आप देशी जालिम के विरूद्ध सत्याग्रह के पक्ष में नहीं हैं। यदि आपका विचार सचमुच यही है तो यह गलत ही नहीं, बहुत खतरनाक भी है। सत्याग्रह के प्रवर्तक आप नहीं प्रह्लाद, सुकरात, ईसा और महात्मा गांधी थे। आपको ज्ञात है कि अमेरिका में पूँजीवादी जनतंत्र है, जहाँ जनता, प्रेस, न्यायालय तथा व्यक्ति की आजादी प्रायः सुरक्षित है। तब भी रंगभेदमूलक वैषम्य और स्वदेशी अन्याय के खिलाफ नीग्रो नेता मार्टिन लूथर किंग को लड़ना पड़ा। वे सत्याग्रही-शिरोमणि थे। वे नपुंसक गांधीवादी नहीं, तेजस्वी और प्राणवंत गांधीवादी थे। उन्होंने अपनी जनता को जगाया, तैयार किया और लड़ाई के मैदान में उतारा अहिंसक तरीके से। यह अत्यंत आश्चर्य का विषय है कि आप स्वदेशी जुल्म और जुल्मी को वैसा मानने को तैयार ही नहीं हैं, उनके विरूद्ध लड़ने की बात तो दूर रही। भारत में जितना जुल्म है, संसार के सभ्य देशों में उतना शायद कहीं नहीं, और इधर 26 जून, 1975 से जितना राजनीतिक जुल्म यहाँ चल रहा है, उतना शायद अंग्रेजीराज में भी नहीं था। इन सबके बावजूद, आपने 25 दिसंबर को उपदेश दिया कि यहाँ सत्याग्रह अनावश्यक है। आप जैसे व्यक्ति को महात्मा गांधी का उत्तराधिकारी कहलाने का अब कोई अधिकार नहीं रहा। यहाँ मुझे डाॅ. राम मनोहर लोहिया का एक वाक्य स्मरण हो आता है। उनका कहना था -गांधीवादी तीन तरह के होते हैं-मठी गांधीवादी, सरकारी गांधीवादी और कुजात गांधीवादी। भारत को जितने मठी गांधीवादी और सरकारी गांधीवादी चाहिए, उनसे कहीं अधिक संख्या में कुजात गांधीवादी चाहिए। कुजात गांधीवादी के अभाव में मठी गांधीवादी और सरकारी गांधीवादी या तो निक्कमा, गंदा या भ्रष्ट हो जाएगा अथवा तानाशाह बन जाएगा। कुजात गांधीवादी ही अहिंसा, न्याय, समता, नया समाज और सर्वोदय की स्थापना में अपनी समर्थ भूमिका निभा सकता है।

आपने अपने भाषणों में देश के ऊपर गंभीर खतरे का जिक्र किया। यह तो सचमुच प्रधानमंत्री के स्वर में बोलना और उनका समर्थना करना हुआ। यह आपके लिए कदापि उचित नहीं, शोभनीय नहीं। आपकी प्रतिभा विलक्षण मानी जाती है। आपको अपने स्वतंत्र तथा मौलिक चिंतन का लाभ देशवासियों को देना चाहिए था। परंतु आपने वैसा नहीं किया। आखिर, असल खतरा देश के सामने है क्या? मेरे जानते गहन गरीबी, जबरदस्त बेकारी, भयंकर गैर-बराबरी, व्यापक भ्रष्टाचार, अत्यधिक केंद्रीयकरण, घोर कुशासन,शासकोंके संयमहीन, अनुशासनहीन और अनैतिक जीवन तथा कदम-कदम पर हो रहे जातिगत और संपत्तिगत अन्याय हमारे देश के लिए असली खतरे हैं। चूँकि ये खतरे प्रधानमंत्री के राज में ज्यादा बढ़ गए हैं, इसलिए जनता का ध्यान मोड़ने के लिए उन्होंने दूसरे प्रकार के खतरों का जिक्र जोर से जारी कर रखा है। मगर, यह देखना-समझना जरूरी है कि जिन बाहरी खतरों का जिक्र इतने जोर से किया जा रहा है, दरअसल वे हैं क्या? आप जानते हैं कि रूस को आज दो देशों की प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है -एक है पूँजीवादी अमेरिका और दूसरा है साम्यवादी चीन। रूस की वर्तमान सारी वैदेशिक नीति का मूलाधार है अमेरिका और चीन को मात देना। यह अत्यंत दुर्भाग्य का विषय है कि आज के अंतरराष्ट्रीय खेल में हमारा देश रूस की गोटी बनकर खेल रहा है, यह न केवल अमेरिका और चीन की शिकायत है, बल्कि देशावासियों की भी आम धारणा है।

लोगों को लगता है कि हमारे देश की उद्घोषित नीति भले गुट निरपेक्षता और तटस्थता की हो, किंतु व्यवहृत नीति है गुटपरस्ती की। इसी गुटपरस्ती के चलते हम अपने देश के लिए खतरे मोल ले सकते हैं, खतरे को न्योता दे सकते हैं। प्रमाण के रूप में प्रधानमंत्री एवं कांग्रेस अध्यक्ष के दर्जनों भाषण हैं। प्रधानमंत्री प्रायः प्रत्येक भाषण में अमेरिका द्वारा दूसरे देशों के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप की शिकायत करती हैं। निस्संदेह, अमेरिकी हस्तक्षेप की कड़ी-से-कड़ी निंदा-भत्र्सना होनी चाहिए, लेकिन सिर्फ उसी को क्यों? क्या यह सही नहीं है कि रूस भी दूसरे देशों के अंदरूनी मामलों में अमेरिका की ही तरह हस्तक्षेप करता है? बहुत दूर के नहीं, हाल के सिर्फ दो उदाहरण काफी हैं-अंगोला और पुर्तगाल। फिर रूसी हस्तक्षेप की भी भत्र्सना प्रधानमंत्री के भाषण में क्यों नहीं होती है? क्या सी.पी.आई. (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, दक्षिणपंथी) की तरह प्रधानमंत्री की भी यही मान्यता है कि अमेरिका का हस्तक्षेप तो साम्राज्यवादी कदम है, लेकिन रूसी हस्तक्षेप मुक्ति-अभियान है? क्या पूर्वी यूरोप के देशों-विशेषकर चेकोस्लोवाकिया तथा हंगरी में रूसी हस्तक्षेप एवं हिंसा, हमला, हत्या, दमन, अत्याचार और बर्बरता की वर्षों पूर्व की कहानियाँ प्रधानमंत्री को याद नहीं हैं?

परीक्षा-समीक्षा से सिद्ध होता है कि दोनों द्वारा हस्तक्षेप के अनेक तरीके अपनाए जा रहे हैं, जिनमें कुछ समान हैं और कुछ भिन्न भी। रूस का एक विशिष्ट तरीका यह है कि दुनिया के हर देश में वह ऐसी पार्टी खड़ा करता है, जो उसके गीत गाए और उसके आदेशानुसार आचरण करे। रूस उस पार्टी का इस्तेमाल न सिर्फ खुफियागिरी के लिए करता है, बल्कि अंदरूनी हस्तक्षेप के साथ-साथ मौका हाथ लगते ही सरकार को उलटकर रूस-आश्रित कम्युनिस्ट राज कायम करने के लिए भी। उधर अपना सी.आई.ए. के जरिए अमेरिका भी दुनिया के भिन्न-भिन्न देशों में उलट-पलट का काम करता रहता है। ‘को बड़ छोट कहत अपराधू’ वाली बात है।

सी.आई.ए. की चर्चा प्रधानमंत्री और कांग्रेस-अध्यक्ष के मुँह से आजकल प्रायः प्रतिदिन हुआ करती है, लेकिन क्या कभी के.जी.बी की भी चर्चा होती है? जिस तरह अमेरिका सी.आई.ए. कुख्यात है, उसी तरह रूसी के.जी.बी. भी। जिस प्रकार के कुकर्मों के लिए सी.आई.ए. का बड़ा-से-बड़ा दुश्मन भी उतना नहीं कर सकता था। यह अमेरिकी जनतंत्र और प्रत्येक जनतंत्र की विशेषता का परिचायक है। भूतपूर्व राष्ट्रपति निक्सन के मामले (1674) में अमेरिकी जनतंत्र तथा द्वितीय विश्वयुद्ध की अति गंभीर और नाजुक स्थिति (1740) में चेंबर लें-चर्चिल विवाद आदि अनेक मौकों पर ब्रिटिश जनतंत्र की शक्ति, सामथ्र्य और साहस से सारा संसार भलीभाँति अवगत है। क्या के.जी.बी. का नग्न चित्र पेश करने का साहस और ईमानदारी रूस में है? कहना पड़ेगा हर्गिज नहीं। क्योंकि वहाँ तो जनतंत्र, यानी मुक्त समाज है ही नहीं। हमारे देश में जो सी.आई.ए. है-प्रायः हर देश में उसका संस्कार है-वह रूस का एक अतिरिक्त हथियार है-के.जी.बी. के अलावा।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में जग-जाहिर-करतूत के बावजूद आज किसको नहीं मालूम है कि वह प्रधानमंत्री और कांग्रेस-अध्यक्ष की नाक का बाल है? जाहिर है कि प्रधानमंत्री को केवल अमेरिकी हस्तक्षेप से विरोध है, रूसी हस्तक्षेप से बिल्कुल नहीं। ऐसी हालत में अमेरिका जरूर चाहेगा कि रूस के साथ प्रतिस्पर्धा में रूस को मात देने के लिए वह भी जो कुछ कर सकता है, करे। अमेरिका को मात देने के लिए रूस भी जो कुछ संभव है, कर रहा है और करता रहेगा। रूस-अमेरिका की प्रतिद्वंद्विता में भला भारत क्यों दिख रहा है, क्यों किसी का पक्ष ले? लेकिन निरपेक्षता, तटस्थता और मध्यस्थता की नीति को अमल में ताक पर रखकर भारत इधर हाल के वर्षों में रूस का पक्ष लेता दिखता है। इसीलिए अमेरिका और भारत के बीच दुराव है। मान लीजिए, हमारी नीति आज पलट जाए, अर्थात् अमेरिका परस्त एवं रूस विरोधी हो जाए, तो वैसी हालत में अमेरिका को मात देने के लिए रूस हमारे भारत के प्रति वही नीति अपनाएगा, जो आज अमेरिका अपनाए बैठा है। आजादी के लगभग 15 वर्षों तक रूस भारत को अपने गुट में सोलहों आने नहीं गिनता था। शुरू-शुरू में तो उसे भारत के बारे में अमेरिका की और अधिक झुकाव होने का विश्वास था। इसी कारण प्रारंभ के वर्षों में रूस ने सी.पी.आई. के जरिए भारत में हिंसक क्रांति के नाम पर मार-काट, लूट-पाट और तोड़-फोड़ के काम बड़े पैमाने पर करवाए थे। उन दिनों की हिंसक घटनाएँ आज भी जानकार लोगों को याद हैं। भारत-चीन युद्ध के समय रूस ने चीन को आक्रमणकारी करार देने से जो साफ-साफ इनकार किया था, उसे आज भी भारतवासी भूले नहीं हैं। अब आज परिस्थिति बदल गई है। दुनिया को लगता है कि भारत रूस के प्रभाव में है। अमेरिका और भारत के दुराव का मुख्य कारण यही है। पाकिस्तान और चीन से अमेरिकी सामीप्य का भी प्रधान कारण यही है। अमेरिका गरजकर कहता है, ‘भारत है रूस के समीप तो चीन और पाकिस्तान है मेरे समीप’। भारत-अमेरिका दुराव के लिए जितना जिम्मेदार अमेरिका है, उससे कहीं अधिक है श्रीमती इंदिरा गांधी और उनकी दुरंगी नीति। हमारी जो सही नीति होनी चाहिए, वह है सच्ची गुटनिरपेक्षता, सभी देशों से मित्रता, पड़ोसी देशों से सर्व-पूर्व सर्वाधिक मित्रता, आक्रमण, अन्याय, युद्ध, हस्तक्षेप, साम्राज्यवाद, मिथ्यावाद, रंगभेद, वीटो, विशेषाधिकार आदि का निरंतर विरोध तथा स्वतंत्रता, जनतंत्र एवं संपन्नता-समता आधारित नए विश्व के निर्माण का अनवरत प्रयास। लेकिन इस नीति की वकालत और इसके कार्यान्वयन का सच्चा और सतत प्रयास श्रीमती गांधी ईमानदारी से कदापि नहीं कर सकती हैं।

जहाँ तक चीन की बात है, भारत पर अब चीन हमला करनेवाला नहीं है। चीन को जो करना था, वह कर चुका, उसे जो पाना था, पा चुका-(क) भारत का मान-मर्दन, (ख) भारत के मुकाबले चीन की सैन्य शक्तिकी श्रेष्ठता का लोहा मनवाना, (ग) लगभग एक लाख वर्गमील भारत-भूमि पर चीनी कब्जा और (घ) तिब्बत पर उसका निष्कंटक राज तथा प्रभुत्व। नेहरू सरकार के पापों के फल देश को न केवल आज तक भोगने पड़े हैं, बल्कि आगे भी भोगने पड़ेगे। लेकिन जहाँ तक हमले का सवाल है, विगत एक माह के अंदर दो विश्व विशेषज्ञों ने कहा है कि भारत पर चीनी हमले का खतरा अब नहीं है। यदा-कदा नोंक-झोंक की बात दूसरी है। वर्तमान और भविष्य में अपनी विदेशी नीति और कूटनीति के द्वारा, न कि आक्रमण के द्वारा चीन तथा अमेरिका दोनों भारत को पछाड़ने का प्रयास जारी रखेंगे-यह समझकर कि भारत रूसी गुट में है। वस्तुतः भारत को पछाड़ने के लिए कुछ कसर उठा नहीं रखेगा। सवाल यह उठता है कि अमेरिका-रूस की प्रतिद्वंद्विता में भारत का फायदा किसी एक के गुट में शामिल होने में है या किसी ओर भी नहीं झुककर तटस्थ रहने में? मेरे जानते, गुटपरस्ती की नीति भारत के लिए घातक और बरबादी की नीति है। भारत की सुरक्षा और समृद्धि का एकमात्र रास्ता है-अंदरूनी राजनीति, आर्थिक मजबूती और अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में तटस्थता।

हाँ, मैं मानता हूँ कि भारत को एक देश से खतरा जरूर है और वह है पाकिस्तान। यह भारत-विभाजन का दुष्परिणाम है, महात्मा गांधी की पुकार नहीं सुनने, उनकी सलाह नहीं मानने का नतीजा है। यह खतरा असली भी रहेगा और नकली भी-असली तो कभी-कभी, मगर नकली बराबर के लिए। यह नकली खतरा तब तक रहेगा, जब तक भारत और पाकिस्तान के शासकों की सत्ता-लिप्सा चरम सीमा पर रहेगी-येन-केन-प्रकारेण सत्ता से चिपके रहने के लिए। एक ओर श्रीमती गांधी पाकिस्तानी हमले का खतरा बतलाकर गद्दी से चिपके रहना चाहती हैं, आपातस्थिति को जारी रखना चाहती हैं, भारत को विषाल कारागार में परिणत करना चाहती हैं, तो दूसरी और जनाब भुट्टो साहब भी हिंदुस्तानी हमले और खतरों के बहाने देश के विरोधी दलों और जनतांत्रिक आजादी को कुचलते हुए गद्दीनशीं रहना चाहते हैं। श्रीमती गंाधी और जनाब भुट्टो के बीच दुरभि संधि है।वह यह कि हर सुबह-शाम चिल्लाओ-‘खतरा, खतरा, बाहर से खतरा, भीतर से खतरा, ऊपर से खतरा, नीचे से खतरा, जमीन से खतरा, पानी से खतरा--खतरा-ही-खतरा!’ जनता को खतरे के नाम पर उल्लू बनाओ और राष्ट्रीय भावना उभारकर गद्दी बचाओ-यही उन दोनों का मकसद है।

बाबा! यदि आपका यह कहना हो कि पाकिस्तानी खतरा असली खतरा है तो क्या 60 करोड़ का भारत 6 करोड़ के पाकिस्तान से भी लड़ने लायक नहीं है? मेरा कहना है, भारत समर्थ है हमले का जवाब देने के लिए, पाकिस्तान को पराजित करने के लिए। इसलिए पाकिस्तानी खतरे के बहाने आपातस्थिति को जारी रखना बेईमानी ही नहीं, शरारत है। यदि यह बहाना चला तो यह मान लेना पड़ेगा कि चीन और पाकिस्तान की सीमा पर रहते भारत से आपातस्थिति कभी जाएगी ही नहीं! न नया भूगोल बनेगा, न इंदिराजी बदलेंगी।

15 अगस्त के बाद एक और नया बहाना मिल गया है-बँगलादेश का बहाना। किंतु बँगलादेश का सवाल उठाकर अपने कुकृत्यों को उचित ठहराना और अपने पापों पर परदा डालना भी इंदिराजी के लिए पहले दर्जे की बेईमानी है। जगजाहिर है कि बँगलादेश में जो भी उलट-पुलट, अन्याय-अँधेर और हत्याएँ हुई हैं, वे फौज के जरिए हुई हैं, विरोधी दलों के जरिए नहीं। क्या हमारे देश की फौज उलट-पुलट चाहती थी, प्रधानमंत्री और उनके परिवार ही हत्या चाहती थी, षड्यंत्ररत थी? कभी नहीं। क्यों? क्या हमारी सेना सत्तालोलुप है, जनतंत्र द्रोही है? क्या यहाँ के विरोधी दल हिंसा में विष्वास करते हैं, हत्या और षड्यंत्र द्वारा सत्ता-परिवर्तन चाहते हैं?बिल्कुल नहीं। तब फिर, बँगलादेश से भारत की तुलना क्यों? बार-बार यह रट, क्योंकि यदि आपातस्थिति लागू नहीं होती तो हमारा भारत भी बँगलादेश बन जाता? हमारे देश की वफादार और बहादुर फौज पर, जनतांत्रिक विरोधी पर झूठा इल्जामक्यों, गलत अभियोग क्यों? बाबा! मैंने सपने में भीनहीं सोचा था कि प्रधानमंत्री का दिमाग झूठ गढ़ने और फरेब रचने में इतना अधिक उपजाऊ है।

सच तो यह है कि श्रीमती गांधी की कृपा से और शेख मुजीब की मेहरबानी से 1975 ई. की फरवरी के बाद से बँगलादेश में विरोधी दल थे ही नहीं, क्योंकि तानाशाही कायम हो चुकी थी। उसी समय हम लोगों ने कहा था कि बँगलादेश में जो कुछ हुआ है, वह भारत की ‘होनी’ का रेआज (रिहर्सल) है। आखिर होनी होकर रही। याद रहे, मुजीब साहब की हत्या के बाद नहीं, हत्या के कारण भी नहीं, बल्कि उसके दो महीने पहले ही।

जो हो, अब कोई शक-शुबहा नहीं रहना चाहिए कि प्रधानमंत्री के इरादे क्या हैं। आप जरूर जानते होंगे कि सत्ता का भूखा हर तानाशाह उसी बोली में बोलता है, जिस बोली में आज प्रधानमंत्री बोल रही हैं। यदि कोई खतरा सचमुच है देश पर तो वह क्या है, क्यों है, इसके लिए कौन गुनाहगार है? देश का खतरा हम सबका खतरा है। देश न तो प्रधानमंत्री का है, न आपका। भारत समस्त भारतवासियों का है। स्वतंत्रता संग्राम, भारत-चीन युद्ध और बँगलादेश की लड़ाई के समय भारतवासी अपनी देशभक्ति का भरपूर परिचय दे चुके हैं। इसके लिए देशवासियों को और हम लोगों को प्रधानमंत्री का सर्टिफिकेट नहीं चाहिए। सच पूछिए तो तिब्बत, चीन और बँगलादेश के मामलों में अभिक्रम या पहल विरोध दलों ने ही की थी, चेतावनी और ललकार विरोधी दलों ने ही दी थी। जे.पी. भी प्रधानमंत्री से आगे थे, पीछे नहीं। देश पर कोई खतरा होगा तो उसका मुकाबला सारे देशवासियों को मिलकर करना पड़ेगा, राष्ट्र की संपूर्ण शक्ति एवं साधनों को एकजुट करना पड़ेगा। अकेले प्रधानमंत्री अथवा सत्तालोलुपों, पदलोलुपों, धनलोलुपों, बेईमानों और बुजदिलों का गिरोह खतरे का मुकाबला नहीं कर सकता। मगर दुर्भाग्य की बात यह है कि प्रधानमंत्री मिलकर मुकाबला करना चाहती ही नहीं। क्या इसका एक अर्थ यह नहीं लगाया जा सकता है कि वास्तव में खतरा कोई है ही नहीं? यदि खतरा असली होता और यदि वह मिल-जुलकर उसके मुकाबले के पक्ष में होतीं तो सर्वोदय और विरोधी दलों के नेता, कार्यकर्ता और छात्र-युवजन जेल की सींखचों में बंद नहीं होते। मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि 25 जून की रात से जेलों में बंद नेता प्रधानमंत्री से रत्ती भर भी कम देशभक्त नहीं हैं। सच पूछिए तो उनमें से अनेक प्रधानमंत्री से अधिक देशभक्त हैं और अनेक ऐसे हैं, जिनका त्याग और बलिदान देश की आजादी की लड़ाई में प्रधानमंत्री से कई गुना अधिक है। वह आज भी देश के लिए प्राण न्योछावर कर देंगे।

प्रधानमंत्री रोज चिल्ला रही हैं एकता, लेकिन यह चिल्लाहट ऊपरी है, दिखावटी है। उन्होंने तो आज देश के राजनैतिक और सामाजिक जीवन को विभाजित एवं विखंडित कर रखा है, देश में भयंकर तनाव और मतभेद पैदा कर रखा है और करोड़ों के मन में गुस्सा जुटा रखा है। उन्होंने देशभक्तों को देशद्रोही, गणतंत्र-प्रेमियों को फासिस्ट तथा सत्याग्रहियों को संविधान-विध्वंसक करार दे रखा है। यह देश को बचाने और बढ़ाने का रास्ता नहीं,रसातल पहुँचाने का रास्ता है। जो प्रधानमंत्री ऐसी हो कि देश, आजादी, सीमा-सुरक्षा और जनतंत्र को तो गौण, किंतु गद्दी और अपने अहंकार को प्रधान स्थान दे, देश के लिए सचमुच सबसे पहला और सबसे बड़ा खतरा तो वह स्वयं ही है।

बाबा! आपने अब यह सही निर्णय किया है कि भविष्य में केवल दो विषयों पर ही आप बोला करेंगे-विज्ञान एवं आत्मज्ञान। ये आपके शोधे हुए विषय हैं। अच्छा होता, 25 दिसंबर को भी आप इन्हीं दोनों विषयों पर बोले होते!

आपने इंदिरा सरकार और सत्याग्रह के संदर्भ में जो विचार व्यक्त किए, वे गलत ही नहीं, घोर आपत्तिजनक भी हैं। मुझे यह कहते कष्ट होता है कि आपने अपने उक्त भाषण के जरिए अपनी छवि धूमिल कर ली। अब मुझे यह सोचने को बाध्य होना पड़ा है कि आप के बारे में डाॅ. लोहिया जो कह गए हैं, कहीं वही तो सही नहीं है! डाॅ. लोहिया ने कहा-भावेजी अभी जानते नहीं कि जनतंत्र किसे कहते हैं और न उन्होंने सत्याग्रह का ही मतलब सीखा है। न उन्होंने प्रह्लाद को जाना, न उन्होंने सुकरात को जाना, न उन्होंने गांधी को जाना। इनको तो छोड़ दीजिए, जो असली इंसान आनेवाला है, उसको भी वे नहीं समझते। वे गांधी के एक पहलू को लेकर बैठे हुए हैं। वह पहलू है प्रेम का। गांधीजी का दूसरा पहलू था तेजस्विता का, गुस्से का। गरीबी, बेईमानी, बदमाशी, जुल्म से गुस्सा करो और उससे लड़ो, उस पहलू को भावेजी अब तक नहीं समझ पाए। गांधीजी का हृदय-परिवर्तन केवल बड़े लोगों के लिए नहीं था, बल्कि ज्यादा था कमजोर लोगों के लिए, जिससे उनके दिल की कमजोरी दूर हो और जुल्म करनेवालों के खिलाफ वे तन करके खड़े हो सकें।

एक थे महात्मा गांधी और एक हैं आप! बोलने-लिखने की आजादी को महात्मा गांधी सभी आजादियों की जड़ या बुनियाद मानते थे। आपको मालूम है कि उस आजादी के लिए महात्मा गांधी किस तीव्रता एवं उग्रता से सोचते थे, लिखते थे, बोलते थे, लड़ते थे। मगर एक आप हैं कि 26 जून से अब तक एक के बाद एक न मालूम कितनी आजादियाँ गायब हो गईं और अभी-अभी परसों एक अध्यादेश द्वारा एक साथ सात आजादियाँ छीन ली गईं, लेकिन आज तक आपने उन आजादियों की हत्या पर एक शब्द नहीं उचारा, आपके कानों पर जूँ तक नहीं रेंगा। यदि आप पर आज सर्वत्र यह अभियोग लगता है कि अब आप संत विनोबा नहीं, बल्कि ‘सरकारी संत’ बन गए हैं, तो इसका अवसर विगत महीनों में आपने स्वयं दिया है। मेरे जैसे लोगों को आपके संबंध में यह सुनकर अत्यंत पीड़ा होती है।

बाबा! आप जानते हैं कि अखबारों की आजादी जनतंत्र का प्राण है। श्रीमती इंदिरा गांधी ने अखबारों की नहीं, बल्कि जनतंत्र की प्राण-हत्या कर दी। मगर इस संबंध में भी आपके मुँह से एक शब्द नहीं निकाला। आजादी की लड़ाई में अखबारों की देन किसी नेता या किसी खानदान से कम नहीं थी। वस्तुतः तुलनात्मक दृष्टि से अधिक थी। तब फिर अखबारों पर ‘वार’ क्यों? जाहिर है, इंदिराजी को इंदिरा-भक्त अखबार चाहिए,देशभक्त तथा आजादी और जनतंत्र का प्रहरी अखबार नहीं।

श्रीमती गांधी को विश्व में भारत तथा भारतीय जनता को महान् बनाने से उतना मतलब नहीं है, जितना कि गद्दी से चिपके रहने से। अपनी कुरसी बचाने के लिए ही उन्होंने देश पर अंदरूनी इमरजेंसी लादकर जनता के सारे अधिकार छीन लिये। दुनिया के सारे जनतंात्रिक देशों ने उनके इस कदम की तीखी आलोचना की है। इसमें एक भी जनतांत्रिक देश अपवाद नहीं रहा। आलोचकों में जहाँ पूँजीवादी देश, जनतंत्र वाले देश हैं, वहाँ समाजवादी जनतंत्र वाले भी। जहाँ अमेरिका जैसे बड़े देश हैं, वहाँ डेनमार्क, स्वीडेन और नाॅर्वे जैसे समाजवाद और जनतंत्र माननेवाले छोटे देश भी। मगर दुनिया की आँखों में धूल झोंकने के लिए उन्होंने अमेरिका और ब्रिटेन को अपना खास निशाना बनाया।उन्होंने पानी पी-पीकर इन देशों को गालियाँ दीं। कहा-ये साम्राज्यवादी हैं, नवोदित राष्ट्रों का शत्रु हैं, भारत का विघटन चाहते हैं। ये गालियाँ महज इसलिए कि सच क्यों बोलते हो, सही क्यों लिखते हो? यह कैसी दुराशा है कि जो अखबार और रेडियो अपने देश की सरकारों, अपने राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्री को भी नहीं बकसते (छोड़ते) उनसे श्रीमती गांधी यह अपेक्षा रखती हैं कि वे इनके कुकृत्यों से अपनी आँखे मूँद-सी लें! भला यह कैसे संभव है? सच पूछिए तो एक भी जनतांत्रिक देश भारत का दुशमन नहीं। वे सिर्फ इमरजेंसी के विरोधी हैं, अखबारों की आजादी और जनता के मौलिक अधिकार छीने जाने तथा जनतंत्र-प्रेमियों को जेलों में सड़ाए जाने के विरोधी हैं। उनकी इतनी ही इच्छा है कि भारत जब अपने को जनतंत्री कहता है तो यहाँ सच्ची जनतांत्रिक रीति-नीति और सही अमल चलना चाहिए। वे यही कामना करते हैं कि भारत में अधिनायक तंत्र नहीं कायम हो। भला, इसमें क्या गलती है? मगर मात्र साधु आलोचनाओं और सुझावों के कारण श्रीमती गांधी ने जनतांत्रिक देशों के सिर्फ अखबारों और रेडियों को ही नहीं कोसा, बल्कि उन देशों को भारत का दुश्मन करार दे दिया, उन्हें भारत की प्रगति नहीं चाहनेवाला और प्रगति के मार्ग में रोड़े अटकाने वाला ठहराया। देश के अंदर आचार्य कृपलानी, मोरारजी भाई, भीमसेन सच्चर, सिदराल ढठ्ढ़ा, नवकृष्ण चैधरी, चैधरी चरण सिंह, अशोक मेहता, राजनारायण, नंबूदिरीपाद, ए.के. गोपालन, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण, नानाजी देशमुख, पीलू मोदी, बीले पटनायक, चंद्रशेखर, रामधन, मोहन धारिया, ठाकुर दास बांग, कृष्णकांत, मधु लिमये, मधु दंडवते, ज्योतिर्मय बसु, जाॅर्ज फर्नांडिस, के.आर.मलकानी, गौर किशोर घोष, कुलदीप नायर, समर गुहा, एम.सी. छागला, जयप्रकाश नारायण तथा जेलों में बंद हजारझार नेता, कार्यकर्ता छात्र और युवजन जिस प्रकार देश के दुश्मन, जनतंत्र के शत्रु और प्रगति मार्ग के रोड़े करार दिए गए हैं, उसी तरह जनतांत्रिक देश भी शैतानेां के शुमार में याद किए गए हैं। हाँ, मित्र देश घोषित किए गए हैं रूस और पूर्वी यूरोप के देश, जहाँ कम्युनिस्ट तानाशाही है और जिसने आँख मूँदकर जनतंत्र-हत्या के प्रधानमंत्री के कारनामों का समर्थन किया है। बाबा, मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि गद्दी के लिए इतना झूठ बोलना, देश के देशभक्तों को देशद्रोही और विदेश के जनतंत्र-प्रेमियों को भारत-द्रोही करार देना क्या देश-हित का काम है?

बाबा! अब आपसे अंतिम बात कहने की अनुमति चाहता हूँ। आपसे अपने प्रथम दिन के भाषण में श्रद्धेय जयप्रकाशजी का नाम तक नहीं लिया। दूसरे दिन आपने नाम तब लिया, जब प्रतिनिधियों ने आपसे जोरदार अनुरोध किया या आपको मजबूर किया। यह क्यों? क्या कारण वही है, जो प्रारंभ में उल्लेखित है, अर्थात् चूँकि आपका सम्मेलन शासन-आश्रित था, इसलिए श्रीमती इंदिराजी के डर से आप जे.पी. का नाम तक न लेना चाहते थे? यहाँ मुझे महात्मा गांधी याद आते हैं, जिन्होंने एक बार कहा था, ‘‘जब तक जयप्रकाश और लोहिया जेलों में बंद हैं, मैं शांत नहीं बैठ सकता हूँ।’’ महात्मा गांधी उस जयप्रकाश और लोहिया के लिए अशांत और बेचैन थे, जिनके बारे में वे यह अच्छी तरह जानते थे कि उनसे उस जमाने में वैचारिक मतभेद रखते थे। कितनी उदारता थी महात्माजी में! कितनी महानता थी! और बाबा, आपने क्या किया? सिर्फ जे.पी. के स्वास्थ्य के बारे में आपने दो-चार शब्द कहे, अधिक कुछ नहीं। मैंने हिंदी अखबारों में पढ़ा कि आपने कहा, ‘‘जे.पी. की बीमारी उनकी जिंदगी भर की कमाई का नतीजा है।’’ सच कहता हूँ बाबा, मैं अवाक् रह गया। मेरे आश्चर्य की कोई सीमा नहीं रही। मेरी पक्की जानकारी है कि जे.पी. के गुरदे कभी खराब नहीं थे, लेकिन आज तो दोनों ही गुरदे नाकाम हैं। यह हालत जेल में हुई है, बाहर कभी नहीं थी। इसलिए किडनी की खराबी जे.पी. की जिंदगी भर की कमाई नहीं, बल्कि श्रीमती गांधी की क्रूरता का परिणाम है।

बाबा! आपने देश के लिए बहुत किया है, लेकिन जे.पी. ने भी कुछ कम नहीं किया है। जहाँ तक प्रधानमंत्री की बात है, उनसे तो जे.पी. ने कई गुना अधिक किया है। अलबत्ता, प्रधानमंत्री के परिवार ने बहुत किया था, मगर जितना किया था, सूद सहित वापस मिल गया। अब देश के जिम्मे उनका कुछ निकलता नहीं है, कुछ पावना नहीं है। तब भी, आगे के लिए दावा अभी से पेश है।

बाबा! आपने कभी कुछ नहीं माँगा, पारिश्रमिक, पुरस्कार, आजादी का प्रसाद न माँगा, न ग्रहण किया, तो जे.पी. ने भी कभी कुछ नहीं माँगा, कुछ नहीं लिया, नहीं-नहीं। आपसे भी एक कदम आगे-मिला हुआ नामंजूर कर दिया- यह कहकर कि सबके लिए जीना है, सबके लिए करना है, सबके लिए लाना है और सबको मिल-जुलकर खाना और रहना है, केवल अपने लिए कदापि नहीं, मुट्ठी भर के लिए हरगिज नहीं। बाबा! मेरी गुस्ताखी के लिए मुझे माफ कर दीजिए-कठोर शब्द प्रयोग के लिए क्षमा कर दीजिए।

चलते-चलते बाबा, क्या यह आशा लेकर विदा लूँ कि आप पुनर्विचार करेंगे और अन्याय से लड़ने को उठ खड़े होंगे?


सादर प्रणाम के साथ
सेवा में,
संत विनोबा भावे
पवनार आश्रम
वर्धा (महाराष्ट्र)

आपका
कर्पूरी ठाकुर
09.01.1976