तीसरा पत्र


दिनांक 15-09-1976

पूज्य बाबा,


आपने आमरण अनशन का संकल्प त्याग दिया, इस समाचार से मैंने और बहुतों ने राहत की साँस ली। वृद्धावस्था एवं जर्जर शरीरावस्था में आपका अनशन करना आग से खेलना होता। प्रसन्नता का विषय है, अग्नि-परीक्षा से गुजरने की नौबत नहीं आई।

यों सच कहता हूँ बाबा! अनशन का सवाल (इश्यू) मुझे कुछ जँचा नहीं। कारण गौ-हत्या का सवाल अब भारत में कुछ खास है नहीं। प्रधानमंत्री ने संसद्, रेडियो और अखबारों के जरिए तो कई बार इधर प्रचार-प्रसार कराया, उनसे स्पष्ट हो गया कि देश के 14 बड़े राज्यों में काूनन द्वारा, 5 छोटे-बड़े राज्यों में परंपरा द्वारा वर्षो से गौ-वध पूर्ण रूप से बंद है। 5 राज्यों में आंशिक रूप से बंद है। केवल आठ प्रांतों में कानून नहीं बने हैं। एक बड़ा राज्य, शेष अत्यंत छोटे-टोटे राज्य है। जिन राज्यों में अब तक कानून नहीं बन पाए हैं, वहाँ भी प्रायः गौ-हत्या नहीं होती। भारत-विभाजन के बाद हिंदू जनता की सतर्कता, मुसलिम जनता की नव-चेतना और सरकार के कानूनी प्रतिबंध के परिणामस्वरूप प्रायः गौ-वध बंद है। श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, श्री करपात्रीजी महाराज और साधु-समाज की इसमें जबरदस्त भूमिका रही है। ब्रह्मचारीजी 1957का आम चुनाव पं. नेहरू के विरूद्ध मुख्यतः गौ-हत्या के कार्यक्रम पर ही लड़े थे। साधुओं, संन्यासियों, महंतों, मठाधीशों, पंडों और पुजारियों के जिस विशाल जुलूस पर दिल्ली में सरकार ने लाठियों और गोलियों की व्यापक वर्षा की थी और बहुतों को हताहत किया था, वह कुरबानी बेकार और बेअसर नहीं गई। फल लगकर रहा, कानून बनकर रहा, गौ-वध बंद होकर रहा। इसलिए आपके अनशन की अब आवश्यकता नहीं थी। यदि यह करना ही था, माता का आदेश मानना ही था तो यह बहुत पहले करना चाहिए था। यदि आप जैसे लोग उसी समय अनशन और आंदोलन करते-कराते तो इस प्रश्न पर सांप्रदायिकता का रंग नहीं चढ़ता। मगर बाबा, आप ऐन वक्त पर चूक गए। आज अब गौ-वध अपने देश में कोई सवाल (इश्यू) नहीं रहा, मगर दुनिया के पैमाने पर यह सवाल भयंकर ही नहीं, रोज बढ़ती पर है। भारत और नेपाल के अतिरिक्त सारे एशिया, यूरोप, अमेरिका, अफ्रीका और आॅस्ट्रेलिया के महादेशों में, मुसलिम देशों से अधिक गोरों और कालों की दुनिया में, रोज गौ-वध और गौ-वध-मांस-भक्षण-वृद्धि है। गाय आखिर गाय ही है, चाहे वह भारत की हो या किसी और देश की। जहाँ भारत से सैकड़ोझारों गुना ज्यादा गाय रोज कट रही है, क्या वहाँ गौ-वध बंद कराने के लिए कोई कुछ कर सकता है? मैं नहीं जानता, कोई ‘हाँ’ में उत्तर देने का साहस कर सकेगा या नहीं!

अनशन, जैसा आप खुद मानते हैं, एक महान् नैतिक अस्त्र है। इसका सदुपयोग यदि सर्वाधिक नैतिक एवं मानवीय प्रश्न के लिए हो तो सर्वोत्तम। यह प्रश्न आज के भारत में क्या है? गौ-प्रेम केवल हिंदुओं तक सीमित है, किंतु स्वातंन्न्य-प्रेम असीम है, समस्त धर्मावलंबियों, हिंदू, मुसलिम, सिक्ख, ईसाई, पारसी, बौद्ध, जैन, लिंगायत, सबों में पाया जाता है। गौ-प्रेम भरत और नेपाल तक सीमित है, किंतु स्वातंन्न्य-प्रेम सर्वत्र, देशों का सीमोल्लंघन कर समस्त संसार में पाया जाता है। गौ-प्रेम सीमित क्षेत्र और सीमित जाति-धर्म तक है, लेकिन स्वातंन्न्य-प्रेम सीमाभेद, धर्मभेद और जाति-रंगभेद से परे है। गौ-वध बंद हो, मात्र हिंदू चाहते हैं, स्वातंन्न्य-वध बंद हो, सभी इनसान चाहते हैं। गौ-समस्या अच्छी नस्ल की, अच्छी बाछी और बछड़े की, पौष्टिक चारा या खाद्य की,पेय जल की, सुंदर बथान या आवास की अवश्य है, किंतु गौ-वध भारत में अब कोई समस्या नहीं है। हाँ, स्वातंन्न्य-वध (आजादी का खून) आज यहाँ का जीता-जागता प्रश्न है, प्रत्येक साँस का सवाल है। यह शायद आप नहीं भूले होंगे कि दूसरे विश्वयुद्ध में भारतीयों के युद्ध में भाग लेने के विरुद्ध महात्मा गांधी द्वारा वाणी-स्वातंन्न्य और प्रचार-स्वातंन्न्य के लिए छेड़े गए सत्याग्रह-संग्राम के प्रथम योद्धा आप ही थे। जब सिर्फ एक आजादी-बोलने की आजादी के अधिकार के लिए आपने सबसे पहले और सबसे आगे कदम बढ़ाया था, तो आज तो प्रधानमंत्री ने संविधान-प्रदत्त सात आजादियाँ, सभी आजादियों का वध कर दिया है, फिर सबसे आगे रहकर आज भी आप सेनापति क्यों नहीं बनेंगे, नेतृत्व क्यों नहीं करेंगे? आप ही बोलें, बाबा, अनशन का सबसे बड़ा सवाल कौन है आज, गौ-वध या आजादी-वध?

आपने प्रधानमंत्री को जो गौ-वध के प्रश्न पर धन्यवाद दिया, वह सचमुच बेवजह और बेमतलब ही, उन्होंने इसमें धन्यवाद लायक कुछ नहंी किया है। वे तो खुद ही खूनी हैं, इनसान की आजादी और मानवीय अधिकारों की हत्यारिन!

बाल भाईद्वारा प्रेषित दो पुस्तिकाएँ महीनों पूर्व प्राप्त हुई थीं-(1) आपका भाषण, और (2) आचार्य-सम्मेलन का सर्वसम्मत निवेदन। इस कृपा के लिए मैं आपका ऋणी हूँ। साथ ही, बाल भाई का भी आभारी हूँ।

पुस्तक प्राप्त होते ही दोनों को मैं आद्योपांत पढ़ गया था-एक ही बार नहीं, तीन-तीन बार। आप द्वारा परिभाषित अनुशासन के सही अर्थ से मैं अवगत हुआ। उस व्याख्या और अर्थ से मैं शत-प्रतिशत सहमत हूँ, लेकिन बाबा, यह कितना बड़ा अँधेर है कि प्रधानमंत्री ने अनुशासन-संबंधी आपके अर्थ का अनर्थ किया, अनजाने में नहीं, बल्कि पूरा समझ-बूझकर! उन्होंने लाखों, शायद करोड़ांे, रुपए खर्च करके असंख्य पोस्टर-परचों के जरिए देश और दुनिया में यह प्रचार किया कराया कि आपने कहा है-इमरजेंसी अर्थात् अनुशासन पर्व। देश भर में, सभी शहरों और गाँवों में ट्रेनों और ट्रकों पर, दुकानों और दफ्तरों पर, मकानों और स्टेशनों पर, शिक्षण-संस्थाओं और पंचायत घरों पर, दीवारों और दरख्तों पर आपके नाम सहित चिपके पोस्टर और अंकित वाक्य आज भी मेरे कथन की पुष्टि कर रहे हैं। क्या झूठ का अर्थ कहीं सच, अन्याय का अर्थ कहीं न्याय, आतंक का अर्थ कहीं अनुशासन और भयावनी अशुभ काली रात का अर्थ कहीं सफेद हँसती चाँदनी रात हो सकता है? हाँ हो सकता है, भारत की प्रधानमंत्री की निगाह में, किसी और की निगाह में नहीं। आम को इमली और इमली को आम कहना, 36 को63 और 63 को 36 कहना, जनतंत्रियों को फासिस्ट और तानाशाहों को जनतंत्री कहना, देशभक्तों को देशद्रोही और सत्तालोलुपों को देशोद्धारक कहना, गांधीवादियों को प्रतिक्रियावादी और सत्तार्थी-सत्ताभक्तों को समाजवादी कहना प्रधानमंत्री के लिए कोई संकोच की बात नहीं है। मगर बाबा! साफ कीजिएगा, यह भी कोई कम अँधेर नहीं है कि अर्थ के अनर्थ का, ‘विनोबा’ नाम के व्यापक दुरुपयोग का, राष्ट्र के प्रति एवं आपके प्रति किए गए भयंकर अपराध का आपने प्रतिवाद तक नहीं किया। मैं सही कहता हूँ कि जहाँ एक ओर प्रधानमंत्री ने आपका नाम बेचकर अपना उल्लू सीधा किया, वहीं दूसरी ओर उन्होंने आपके सुनाम को कलंकित किया, आपके विमल- धवल यश में धब्बा लगाया तथा राष्ट्र का एवं विश्व जनतंत्र का असीम अहित किया। यह समह्य बात है, किंतु आपने इसे चुपचाप सह लिया।

इस संबंध में एक और महत्वपूर्ण बात का मैं उल्लेख करना चाहता हूँ। इस एक ही घटना से असंदिग्ध रूप से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपना मतलब साधने के लिए प्रधानमंत्री कुछ भी कर सकती हैं, किसी हद तक भी वह जा सकती हैं। जब उन्हें आपके अर्थ का अनर्थ करने में कोई संकोच न हुआ तो भला जे.पी., सर्वोदय नेता, छात्र-युवा नेता और विरोधी दलों के नेता किस खेत की मूली हैं! बाबा! अब आप भी समझ गए होंगे कि जे.पी. और विरोधी दलों के नेताओं के भाषणों या वक्तव्यों का जो अर्थ प्रधानमंत्री ने दुनिया को समझाया है, वह कितना गलत, बे-बुनियाद और दुष्टतापूर्ण है। बिल्कुल उल्टा और मनमाना अर्थ प्रचारित कर उन्होंने देश और दुनिया के साथ दगा किया है, उन्हें धोखे और अंधकार में रखा है।

बाबा! अब आपको पूर्ण विश्वास हो जाना चाहिए कि जिन कारणों और अभियोगों के आधार पर देश तथा जनता पर इमरजेंसी ‘अनुशासन-पर्व’ नहीं, बल्कि आतंक-पर्व, अन्याय-पर्व, असत्य-पर्व, सर्व-सत्ता-पर्व या संजय-बढ़ाओ पर्व है। अतः इसका सिर्फ प्रचंड विरोध ही नहीं, बल्कि इसके फौरन खात्मे के लिए सारी नैतिक शक्ति एवं जनशक्ति को एकजुट करना चाहिए। राष्ट्र के संपूर्ण पुरुषार्थ को जगाने, संगठित करने और मैदान में उतारने के लिए आपको असमंजस, दुविधा और मोह त्यागकर आगे आना चाहिए।

यह पूछा जा सकता है कि जनमत जगाने का आधार क्या होगा? मेरा कहना है, आचार्य- सम्मेलन का सर्वसम्मत निवेदन, उसके प्रति प्रधानमंत्री का अनादरपूर्ण रूख और उस पर अमल करने से उनका साफ इनकार, सबसे बड़ा आधार है। निवेदन जो भी है और जैसा भी है, वह स्वागत-योग्य तथा मानने और अमल करने लायक है। हाँ, इतनी बात जरूर है कि निवेदन में इमरजेंसी के जो लाभ गिनाए गए हैं, वे कोई जन-जागरण, उद्बोधन, अनुशासन या नैतिक शक्ति के उत्थान जनित लाभ नहीं, बल्कि कठोर प्रशासनिक कार्रवाई की बात है। वह इमरजेंसी के बगैर या जनतंत्र-हत्या के बगैर भी हो सकती थी या हो सकती है। वह तो जनतांत्रिक व्यवस्था एवं वातावरण में भी संभव है। कार्रवाई कठोर और मजबूत होते हुए भी आदर्शसम्मत,न्यायसम्मत, संविधान (अक्षर और आत्मा दोनों) सम्मत और मर्यादानुकूल होनी चाहिए। उक्त प्रकार की कार्रवाई के हम हर्गिज विरोधी नहीं, लेकिन तानाशाही के दुश्मन हम जरूर हैं। यों तो तानाशाही में क्षणिक या अप्तकालीन लाभ अधिक संभव है, लेकिन उसके नुकसान और खतरे भी हजारों हैं और ‘आत्मा’ के लिए तो तोजो के जमाने के जापान तथा कम्युनिस्टी तानाशाही के लाभ सर्वविदित हैं। फिर भी, तानाशाही में आजादी का जो वध, मानवता की तो हत्या, मनुष्य और संस्कृति की जो विकृति और झूठ तथा खानदानवाद का जो बोल-बाला होता है, उनके चलते तानाशाही मिटा डालने लायक है। रूस, जर्मनी और आज के चीन की वारदात (घटनाएँ) सबके सामने हैं। आर्थिक प्रगति और उत्पादन वृद्धि की बलिवेदी पर इनसान की आजादी की बलि चढ़ाने से गुलाम भारत की कांग्रेस और आजाद भारत के जनतंत्र ने हमेशा इनकार किया। जिस तरह तानाशाही के प्रकट लाभों के बावजूद स्वातंन्न्य एवं जनतंत्र प्रेमी जनता को तानाशाही स्वीकार नहीं है, उसी तरह इमरजेंसी के चंद फायदों के बावजूद वह कदापि स्वीकार्य नहीं हो सकती। हमारे देश ने खूब सोच-समझकर सही निर्णय लिया कि यहाँ का रथ चार पहिए पर चलेगा। दुनिया में कई मुल्क ऐसे हैं-स्वीडन, नाॅर्वे, डेनमार्क, न्यूजीलैंड, कनाडा, आॅस्ट्रेलिया आदि जनतांत्रिक देश- जो रोटी और आजादी सुख एवं स्वतंत्रता, दोनों ही मामलों में और कुछेक देश तो समता के मामले में भी-तानाशाही ग्रस्त देश से बहुत आगे हैं।

लेकिन आज के भारत की प्रधानमंत्री यहाँ के रथ को सिर्फ दो ही पहियों पर हाँकना चाहती हैं-सर्वधर्म-समभाव और आर्थिक प्रगति। सर्वधर्म-समभाव हमारे राष्ट्रीय आंदोलनों एवं राष्ट्रीय आदर्शों की देन है, प्रधानमंत्रीजी की नहीं। जहाँ तक रोटी का सवाल है, रोटी और रोजी देने-दिलाने में प्रधानमंत्री अब तक पूर्णतः विफल रही हैं, क्योंकि गरीबी और बेकारी, दोनों में इतना ज्यादा इजाफा हुआ है कि भारत के दो-तिहाई लोग आज गरीबी की रेखा से भी नीचे चले गए हैं। संसार में भारत जैसा गरीब देश आज कोई नहीं है। आजादी, रोटी, बराबरी और जनतंत्र का नाम प्रधानमंत्री जरूर जपती रहती हैं, लेकिन वस्तुस्थिति, तथ्य और आँकड़े बतलाते हैं कि इनका जाप मुँह में राम, बगल में छुरी के समान है।

मैं ऊपर कह चुका हूँ कि आचार्य-सम्मेलन का सर्वसम्मत निवेदन न केवल स्वागत-समर्थन योग्य है, बल्कि अविलंब अमल के लायक भी। तब भी प्रधानमंत्री ने पूरे आठ महीने से उस पर कुछ नहीं किया। अतः अब उक्त निवेदन को आधार बनाकर राष्ट्रीय जनमत और विश्व-जनमत के समक्ष अद्यतन स्थिति को, घटनाओं और तथ्यों के मूल्यांकन को तथा निष्कर्षों एवं लक्ष्यों को अधिक सटीक, सुबोध और स्पष्ट करना होगा। अप्रिय भाषा में सत्य का बखान आप न करना चाहें, तो न करें, लेकिन सत्य को, प्रिय भाषा में ही सही, आपको कहना ही चाहिए। भाषा आप भले ही प्रिय रखें, लेकिन वह सजीव, सशक्त, प्रहारात्मक, प्रेरणादायक और पारदर्शी होनी चाहिए। लोगों के सामने यह स्पष्ट चित्र आ जाना चाहिए कि सत्यवादी और अहिंसावाादी झूठ को न तो शरण देता है और न प्रश्रय। न समर्थन देता है और न सहायता -न प्रत्यक्ष न अप्रत्यक्ष। भ्रष्ट, अन्यायी, असत्यवाादी और तानाशाह के प्रति वह नम्र रह सकता है, मगर नर्म नहीं। उसे वह मित्र मानते हुए भी जनतंत्र, स्वातंन्न्य, विकेंद्रीकरण, अहिंसा, नैतिकता और मानवता का शत्रु मानेगा। इस बुनियादी उसूलों के साथ-साथ गरीबों को रोजी, रोटी, बराबरी, कपड़ा, मकान शिक्षा और सम्मान देने-दिलाने के सवाल पर उसे समझौता नहीं, संघर्ष करना होगा। अन्यायी और अहंकारी से संघर्ष अनिवार्य हुआ करता है। राम, कृष्ण, प्रह्लाद, सुकरात, महात्मा गांधी और सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान के उदाहरण -आदर्श हमारे सामने हैं। क्या मैं आशा करूँ कि अक्तूबर के अंत में होनेवाला वृहत्तर आचार्य-सम्मेलन इस प्रश्न पर विचार और निर्णय करेगा? बाबा! महीनों पूर्व ‘ब्लिट्ज’ (अंग्रेजी) में प्रकाशित भेट-वात्र्ता के दौरान प्रधानमंत्री के प्रश्नोत्तर की ओर आपका ध्यान अवश्य गया होगा। ओह! कैसा अहंकार भरा उत्तर है, गरूर भरा रुख और रवैया है! प्रश्नोत्तर के पाठ से आप समझ गए होंगे कि आचार्य-सम्मेलन के सर्वसम्मत निवेदन की प्रधानमंत्री कितनी इज्जत और कीमत करती है! सच पूछिए तो उन्होंने आचार्यों की खिल्ली उड़ाई। उन्होंने प्रश्नकर्ता (संवाददाता) से पूछा कि जनाब लोगों (आचार्यों की, प्रतिनिधि की हैसियत क्या है? उनके कहने का मतलब यह है कि आप समेत संपूर्ण आचार्यगण आपके सिवा किसी और का प्रतिनिधित्व नहीं करते।

ऐसे स्थिति में बिन धरती और बिन पैरवाले आचार्यों का निवेदन मानने को भला वह महान् प्रधानमंत्री क्यों तैयार हो, जो अत्यधिक लोकप्रिय जन-प्रतिनिधि ही नहीं, बल्कि साक्षात् भारत-माता है और जिनका सोर (जड़) नीचे पाताल लोक को कौन कहे, सप्तलोक तक जा चुका है। आपने सुना ही होगा, सारे भारत में इन दिनों गान-गुंजाया जा रहा है, ‘इंदिरा ही भारत है, भारत ही इंदिरा है।’ मैंने आपको अपने पूर्व पत्र में लिखा था कि जब कौरवों ने साक्षात् योगेश्वर योगाचार्य श्री कृष्ण का नहीं सुना तो क्या प्रधानमंत्री आप आचार्य या आचार्यों का सुननेवाली हैं? काश! मेरा लिखना गलत साबित होता, लेकिन सो हुआ नहीं। सत्ता निरंकुश सत्ता-शक्ति के सामनझुकती है, संत के सामने नहीं।

इस सिलसिले में क्या मैं एक विनती आपसे करूँ? क्या स्वयं आप या आप नहीं तो आपके कोई विश्वस्त साथी या शिष्य प्रधानमंत्री से पूछ सकते हैं कि यदि बाबा की कोई प्रतिनिधि की हैसियत नहीं या बाबा में कोई पुण्य, प्रताप और प्रभाव नहीं तो प्रधानमंत्री ने ‘बाबा’ का नाम जपकर और अनुशासन-पर्व रूपी मंत्र रटकर वैतरणी पार करने की निर्लज्जतापूर्ण धृष्टता क्यों की? क्या आप उनकी इस चाल को अभी तक नहीं समझपाए हैं कि जब आपको भंजाकर आपसे उन्हें कुछ बनाना-निकलना हो तो आपका मोल लाख टका है, किंतु जब आपसे या आपके द्वारा आहुत आचार्य-सम्मेलन के निवेदन से उनकी सर्वसत्ता पर आँच आनेवाली हो तो आपकी और आचार्य की कीमत उनके यहाँ कानी कौड़ी भी नहीं है।

मैंने अखबारों में पढ़ा था कि प्रधानमंत्री ने विगत 24 फरवरी को आपसे मुलाकात-बात की थी। क्या आपने उनसे कम-से-कम एक सवाल पूछा कि उन्होंने श्री श्रीमन्नारायणजी को, उनकी सारी कोशिशों के बावजूद भेंट क्यों नहीं दी? क्या श्रीमनजी और उनके 10-11 रोज का समय, जो उन्हें दिल्ली प्रवास में और वहाँ आने-जाने में गुजारने पड़े, का कोई मोल नहीं? स्पष्ट है, प्रधानमंत्री ने आपके प्रति, श्रीमनजी के प्रति, आचार्यों के प्रति और सर्वसम्मत निवेदन के प्रति अपने असली रुख, इरादे और मनोवृत्ति का परिचय दे दिया। उन्होंने आप सबका एक साथ घोर निरादर किया। मैंने उन्हें जितना समझा है, वे संपूर्ण समर्पण जानती हैं, समानता और स्वाभिमानाधारित सहयोग नहीं, वे दासता जानती है, जनतांत्रिक आचरण एवं विरोध नहीं, निष्पक्ष निवेदन तक नहीं।

विगत फरवरी महीने की बात है, ‘आजादी आई आधी रात’ ;थ्तममकवउ ंज डपकदपहीजद्ध के लेखक श्रीमती इंदिरा गांधी (प्रधानमंत्री) से मिलने गए थे। उन्होंने जब उनसे पूछा कि इमरजेंसी के चलते स्थिति में जो तनाव पैदा हो गया है, उसे दूर करने के लिए इमरजेंसी में ढील (नरमी) कब तक दी जाएगी? तो प्रधानमंत्री ने झट जवाब दिया कि लोगों को जेल से रिहा करके ढील देने का काम जारी है। यह तो हुई आठ महीने पहले की बात। अभी उस दिन पंद्रह अगस्त को लाल किल पर ऊँचाचढ़कर भाषण देते हुए उन्होंने कहा कि इमरजेंसी अर्थात् आपातस्थिति को जो शिथिल (ढीला) किया जा चुका है, वह लोगों को सूझता ही नहीं है। प्रधानमंत्री का खयाल है कि अकेले वही आँख वाली हैं, शेष सभी लोग अंधे हैं।

तटस्थ भाव से प्रधानमंत्री के दावे की जरा समीक्षा कीजिए। आप देखेंगे कि उनके दावे को चाहे जिस किसी चीज से मतलब हो, कम-से-कम सत्य से तो कोई सरोकार नहीं। मैंने सुना है, रात-दिन बोले जाने वाले झूठ को सत्यवादी एवं अहिंसावादी हिंसा में शुमार करते हैं। तब प्रधानमंत्री को आप क्या करेंगे? समीक्षोपरि जो तथ्य सामने आया है, वह यह है कि कानूनी तौर पर अदालतों के जरिए, जमानत पर छोड़े गए लोगों को छोड़कर, सरकार की मरजी-मेहरबानी से रिहा किए जानेवाले लोगों की गिनती उँगली पर की जा सकती है। रिहा हुए लोगों में रोगग्रस्त बूढ़े या मरणासन्न बूढ़े ही आते हैं। जे.पी., नवकृष्ण बाबू, वैद्यनाथ बाबू, महामाया बाबू, डाॅ हरेकृष्ण महताब, श्री चैधरी चरण सिंह, श्री अशोक मेहता और श्री सुरेन्द्र मोहन आदि की रिहाई इसी कोटि में आती है। आपके परम सहयोगी वैद्यनाथ बाबू (बिहार) तो कारामुक्त होकर भी नहीं बच सके। एक महीना हुआ परलोक सिधार गए। ऐसे अनेक हैं, जिन्हें सिर्फ बाहर मरने के लिए ही जेल से रिहा किया गया। सैंकड़ों की लाश तो जेल से ही निकाली जा चुकी है।

एक बात पर जरा गौर तो कीजिए, बाबा! मुट्ठी भर लोगों की रिहाई का प्रधानमंत्री कितना ढिंढोरा पीटती है, लेकिन दूसरी तरफ हजारोंझारों को वे किस तरह छिपाकर रखती हैं?

1975 के नवंबर से अब तक सरकार ने अपने आदेश से जितने लोगांें को रिहा किया है, उनकी तुलना में इसी अवधि में सारे भारत में गिरफ्तार किए गए लोगों की संख्या सैकड़ों गुना ज्यादा है। यों तो 26 जून, 1975 से सारे देश की जनता विदेशी गुलामी से भी बदतर दासता में जकड़ दी गई है, मगर जैसा आप जानते हैं, सात-आठ महीनों तक दो प्रांतो, तमिलनाडु और गुजरात की जनता अपेक्षाकृत आजादी की साँस ले रही थी। फरवरी-मार्च से वहाँ की आजादी का दम घोंट दिया गया। फरवरी, मार्च और अप्रैल में दोनों ही प्रांतो में कुल मिलाकर हजारों की गिरफ्तारियाँ हुईं। 26 जून भारत के इतिहास में सबसे काला दिन बन चुका है। ‘काला दिवस’ मनाने के जुर्म में जून ‘76 के अंतिम सप्ताह में अकेले बिहार में ही सैकड़ों लोग गिरफ्तार किए गए। यों उक्त दिवस पर गिरफ्तारियाँ कमोबेश सारे देश में हुईं। जुलाई 10 से 20 की अवधि में बिहार में सैकड़ों स्थानों पर पुलिस ने छापे मारे और सैंकड़ों व्यक्तियों को गिरफ्तार किया। कारण, 20 जुलाई को जे.पी. आपसे मिलने के बाद उसी रोज कलकत्ता आए थे। गिरफ्तार लोगों को हफ्ता-दो-हफ्ता के बाद छोड़ दिया गया। आज आजाद भारत में जे.पी. आपसे मिलने गए, कलकत्ता और फिर पटना पहुँचे, मगर एक लफ्ज भी किसी अखबार में नहीं आया, रेडियो और टेलीविजन का तो नाम ही लेना बेकार है। आज अखबार,रेडियो, टेलीविजन और सिनेमा के न्यूज रील प्रधानमंत्री और उनके सुपुत्र श्री संजय के लिए रिजर्व हैं। जे.पी. के आगमन के दिन, नहीं-नहीं, कई रोज पहले से ही कलकत्ता, विशेषकर पटना में सरकार की ओर से वैसी ही तैयारी थी, जैसी फौज की तैयारी विदेशी दुश्मनों को मात देने के लिए हुआ करती है। एक तरफ तो जे.पी. के साथ उक्त बरताव, दूसरी तरफ आजकल संजय के लिए हर दौरे पर सरकार की तरफ से कैसी शानदार व्यवस्था रहती है! कहाँ जे.पी. और कहाँ संजय! सच मानिए बाबा! आज देश के नौजवानों का खून उबाल खा रहा है, वे देखते हैं, सोचते हैं, कानाफूसी करते हैं-‘‘आजादी की लड़ाई क्या नेहरू-मंडन के वास्ते लड़ी गई, क्या सच्ची आजादी चाहनेवालों को कुचलने तथा अमर शहीदों और महात्मा गांधी के सपनों को नेस्तनाबूद करने के लिए लड़ी गई?’’

एक रहस्य और जान लीजिए। तमाम बिहार में यह जोरों की चर्चा है कि खास जे.पी. के लिए बिहार सरकार ने एक डी.आई.जी. (पुलिस) के पद का सृजन और पद-स्थापना किया है, अर्थात् जैसे डी.आई.जी. (सी.आई.डी.), डी.आई.जी. (नक्सलपंथ), डी.आई.जी. (अपराध या डकैती) आदि अनेक होते हैं, वैसे ही वहाँ अब एक और डी.आई.जी. (जे.पी.) नियुक्त किए गए हैं। इन दिनों 24 घंटे एक मजिस्टेªट, पुलिस अधिकारी, सशस्त्र सिपाही तथा केन्द्रीय और प्रांतीय गुप्तचर, जीप गाड़ी के साथ उनके पीछे लगे रहते हैं। एक क्षण भी वे उनका पीछा नहीं छोड़ते। गाड़ी में वायरलेस सेट भी हमेशा फिट रहता है। यह तो हुई जे.पी. की बात। लेकिन दूसरे भी जिस किसी नेता को रिहा किया गया है, उन्हें भी नागरिक आजादी के सारे अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है। सत्ता कांग्रेस, युवा कांग्रेस या सी.पी.आई. के नेताओं-कार्यकर्ताओं की तरह वे न तो कोई सभा-सम्मेलन कर सकते हैं, न कोई विचार-बैठक या संगोष्ठी ही। उनके वक्तव्य, विचार या लेख भी प्रकाशित नहीं हो सकते। बाबा आप ही बताएँ कि वह रिहाई किस काम की, जब काम ही नहीं करने दिया जाए, काम करने की आजादी ही नहीं दी जाए? किंतु इसी को प्रधानमंत्री रिहाई, ढील (रिलैक्सेशन), आजादी, अनुशासन और जम्हूरियत मानती हैं, इसी को नया जनवाद कहकर गर्वोन्नत होती हैं, हिंदुस्तान और दुनिया के अखबार, रेडियो, टेलीविजन आदि में इंटरव्यू देती हैं और इस विकृत जनतंत्र की शान बघारती है।

आपने सुना ही होगा कि जिस दिन संसद् का सत्रावसान हुआ, उसी दिन या उसके एक-दो दिन पहले सरकार ने संसद् में दो काम बड़े कमाल के किए-(1) एक विधेयक पेश किया संसद् के सदस्यों के मासिक पेंशन की जीवनपर्यंत व्यवस्था के लिए। (2) पुनः प्रस्ताव पेश किया, दल- परिवर्तन-विरोधी विधेयक को अगले सत्र तक स्थगन के लिए। यह उल्लेखनीय है कि पेंशन-संबंधी विधेयक जिस दिन पेश हुआ, उसी दिन बहुत आराम के साथ बिना कोई खास बहस के ही पास हो गया, लेकिन दल-परिवर्तन-विरोधी विधेयक, जो 1973 ई. से ही संसद् में लंबित है, पुनः अगले सत्र के अंतिम दिन तक के लिए स्थगित हो गया। जहाँ इस अभागे विधेयक के बार-बार स्थगन का क्रम विगत तीन वर्षों से जारी है, वहाँ विगत चैदह महीनों में अनेक विधेयक संसद् में एक ही दिन में धड़ा-धड़ और तड़ा-तड़ पेश तथा पास होते रहे हैं। प्रधानमंत्री को जितना तरघुस्की कम या विधि-विधान पास करना है, सबका मुहूर्त इसी अवधि में बनता है।

यह भी उल्लेखनीय है कि सांसदों के पेंशन की व्यवस्था के लिए देश में कभी किसी ने कोई माँग नहीं की, न कभी कोई आंदोलन या जनमत न ही प्रकट हुआ। मगर क्या अजब और गजब है कि वह बिल आनन-फानन में कानून बन गया! अब देखा-देखी राज्यों में भी विधायकों के पेंशन का कानून बनकर रहेगा। बड़ी तेजी से देश में एक नए वर्ग का उदय और प्रसार हो रहा है। जनता के टैक्स के पैसे और साधनों को नया वर्ग बराबर सोखता रहेगा और गरीबों को और अधिक पामाल करता रहेगा। दूसरी तरफ जिस दल-बदल-बंदी के लिए कितने ही वर्षों से जनता की जबरदस्त माँग रही है, वह विधेयक आज तक कानून का रूप न ले सका। देश में ऐसा एक भी दल नहीं, कोई व्यक्ति या समूह नहीं, जो दल-बदल-बंदी का विरोधी हो। नसबंदी पर भीतर-ही-भीतर गहरा मतभेद और विरोध है, पर दल-बदल-बंदी पर नहीं। आप तो ब्रह्मचर्य या संयमपूर्ण गृहस्थ जीवन द्वारा परिवार की परिकल्पना (नियोजन) के पक्षधर हैं, सरकार के जोर-जबरदस्ती या प्रलोभन या डरउवल, लुभउवल, फसलउवल वाले तौर-तरीके के नहीं। हमारे देहातों में एक कहावत है-‘माँगे हरें तो दे बहेरा या उरदी का भाव पूछे बनउर छह पसेरी। ‘जनता माँगती है दल-बदल-बंदी तो सरकार देती है जबरन नसबंदी!

इस विषय की समीक्षा से कई निष्कर्ष निकलते हैं। पहला, हमारे देश की लोकसभा या संसद् जनता के दुःख-सुख, आशा-आकांक्षा, स्वप्न-कल्पना, उम्मीद-अरमान का दर्पण नहीं। तीन सौ रुपए से पाँच सौ रुपए तक मासिक पेंशन सांसदों या विधायकों को देने का कानून एक ऐसे देश में पारित हुआ है, जहाँ साठ करोड़ में पचास करोड़ लोगों की औसत रोजाना आमदनी साढ़े तीन आने से लेकर दो रूपए तक की है। अभी हाल ही में यह आँकड़ा प्रकाशित हुआ है कि जहाँ 1960-61 ई. में देहाती क्षेत्रों में गरीबी रेखा के नीचे गुजर करनेवालों की संख्या 59 प्रतिशत थी, वहाँ 1970-71 ई. से उनकी संख्या 74 प्रतिशत हो गई और उसी अवधि में शहरी इलाकों में 23 प्रतिशत से बढ़कर 50 प्रतिशत। अब तो उन अभागों की संख्या और अधिक हो गई है। यदि देश के दरिद्र लोगों के लिए पचास रुपए मासिक पेंशन की व्यवस्था भी हो जाती है तो एक बड़ी बात होती। साफ है कि जनता की मूलभूत समस्याओं से सांसदों ने सिद्ध कर दिया कि उन्हें अपने आपके लिए असली चिंता है, जनता के लिए नकली, गरीबों-बेकारों के लिए बिल्कुल ही नहीं। ऐसे ही लोग आज संसद् को सर्वोपरि, सर्वाधिकार-संपन्न और जनता की सच्ची प्रतिनिधि संस्था कहने की जुर्रत करते हैं।

दूसरा निष्कर्ष यह निकलता है कि सरकार की कथनी कुछ और है, करनी कुछ और। जनतंत्र में उसकी अटूट आस्था नहीं, हृदय में सच्ची जनभक्ति नहीं। वचन जाने की तनिक भी लाज नहीं। कांग्रेस और उसकी सरकार दल-बदल को रोकने और तत्संबंधी कानून बनाने के लिए वर्षों से वचनबद्ध है। किंतु सर्वोदय संस्थाओं, जन-संगठनों, जनतंत्र-प्रेमियों, राजनैतिक पाटियों तथा समाचार-पत्रों की सर्वसम्मत माँग और निरंतर दबाव के बावजूद सरकार ने आजतक अपने वचन और जनता को दिए गए आश्वासनों का पालन नहीं किया। बुनियादी बातों, जनतांत्रिक आदर्शों और मर्यादाओं के मामले में वचन-भंग करना प्रधानमंत्री की आदत बन गई है।

तीसरा निष्कर्ष यह निकलता है कि जिन नापाक हथकंडों के जरिए आज तक कांग्रेस राज करती रही है और विरोधी दलों की सरकारों को बारंबार गिराती रही है, उनमें एक हथकंडा जो दल-बदल है, उसे त्यागने को प्रधानमंत्री आज कतई तैयार नहीं। सन् 1969 ई. से अर्थात् जब से प्रधानमंत्री ‘परम स्वतंत्र न सिर पर कोई’ हो गई है, तब से उनका उक्त हथकंडा और अधिक व्यापक और तेज हो गया है। इमरजेंसी में तो वह हद से ज्यादा तेज और कारगर है। प्रत्येक प्रांत में दल-बदल, प्रत्येक पार्टी से दल-बदल, हर महीना, हर हफ्ता, दल-बदल। तमिलनाडु, गुजरात, कर्नाटक और उड़ीसा ज्वलंत उदाहरण है। जब तक कांग्रेस को कुरसी का फायदा होता रहेगा, दल-बदल-बंदी का कानून नहीं बनेगा। कांग्रेस की गद्दी बरकरार रखने और विरोधी दलों को अपदस्थ करने के लिए दल-बदल एक अमोध अस्त्र है।

कुरसी कांग्रेस सिद्धांतविहीन, मयादाहीन और दो जीभवालों (डबल स्टैंडर्ड वाली) की पार्टी है। दूसरे दलों से दल-बदल करके जितने लोग कांग्रेस में आ मिलें, बहुत अच्छा-सभी दल-’बदलुओं का शानदार स्वागत। प्रधानमंत्री का दावा है कि कुरसी कांग्रेस सभी पार्टियों के लिए परम आश्रय और परम गति है। परंतु दूसरे दलों को दल-बदल करने का कोई अधिकार नहीं है। सारा पापाधिकारी सिर्फ कुरसी कांग्रेस के लिए सुरक्षित (रिजर्व) है। जम्मू-कश्मीर की घटना जीता-जागता नमूना है। वहाँ के दस कांग्रेसी विधायक अभी हाल में शेख अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल काॅन्फ्रेंस में शामिल हो गए। शेख साहब ने उनके कन्वेंशन में पधारकर उनके निर्णय का स्वागत किया। बस क्या था, श्रीनगर से दिल्ली तक एक तुफान उठ खड़ा हुआ। कश्मीरी कांग्रेसी नेताओं से लेकर प्रधानमंत्री और कांग्रेसी या दूसरे दलों के टिकट पर जीते हुए विधायकों का, चाहे संसद् सदस्यों का दल-बदल नहीं कराना चाहिए। यह बयान दिल्ली में दिया गया, जहाँ उक्त दोनों नेता सात दिनों तक प्रधानमंत्री, कांग्रेस अध्यक्ष एवं अन्य वरिष्ठ नेताओं से मिलते और बातें करते रहे। जाहिर है, वह बयान उन सबों की सहमति और इजाजत से दिया गया। कितना पाखंड, कितनी मक्कारी, कितनी ठगैती है उस बयान में, केवल ‘परोपदेशे पांडित्यम्।’ दूसरे दलों के टिकट पर जीते हुए संसद्-सदस्य या विधायक यदि दल-बदलकर कुरसी कांग्रेस में शामिल हो जाएँ तो वे प्रधानमंत्री की निगाह में पुण्य-कर्म करते हैं, मगर कुरसी कांग्रेस के टिकट पर जीते हुए विधायक यदि दूसरे दलों में चले जाएँ, तो वे महापाप और अपकर्म करते हैं।

श्री नगरवासी शेख अब्दुल्ला साहेब श्रीनगर में ही जब दल-बदलुओं का स्वागत करते हैं तो वे महान् अपराध करते हैं, लेकिन दिल्ली से उड़-उड़कर राज्यों की राजधानियों में पधारकर दल-बदलुओं का स्वागत करने वाली प्रधानमंत्री, कांग्रेस अध्यक्ष एवं अन्य कांग्रेस नेता धर्म-कार्य करते हैं। पुरानी बातें कहाँ तक गिनाई जाएँ, अभी उस दिन 1 सितंबर को कांग्रेस पार्लियामेंटरी पार्टी की बैठक में स्वयं प्रधानमंत्री ने कांग्रेस में शामिल होनेवाले नए दल-बदलुओं का स्वागत करते हुए कहा -‘‘नए सदस्यों का स्वागत है। आशा है, वे पार्टी और देश को मजबूत बनाने में यथेष्ट योगदान देंगे।’’ यह शायद उसी दिन की घटना है, जिस दिन कश्मीरी कांग्रेसी नेताओं ने दल-बदल के विरुद्ध में ही बयान दिया। इस एक ही उदाहरण से प्रमाणित हो जाता है कि प्रधानमंत्री और कांग्रेसी नेताओं के जीवन में मूल्य, मापदंड, मर्यादा और नैतिकता लेश मात्र भी नहीं रह गई है। वे साँप की तरह दो जीभवाली या वाले हैं। अपने लिए एक मापदंड और दूसरे के लिए दूसरा! यह कपटाचार नहीं तो क्या है?

आपने यह सुना होगा कि सत्रावसान के एक-दो दिन पूर्व केरल के विधानसभा की जीवनावधि संसद् द्वारा तीसरी बार बढ़ा दी गई। यह तो आप जानते ही हैं कि केरल में किसी एक पार्टी का बहुमत विधानसभा में नहीं है। इसलिए कुरसी कांग्रेस, सी.पी.आई., मुसलिम लीग और केरल कांग्रेस का संयुक्त मंत्रिमंडल आजकल वहाँ कार्यरत है। जहाँ चार दलों की मिली-जुली सरकार है, वहाँ तो तीसरी बार कालावधि बढ़ाई गई हैै, मगर जिस तमिलनाडु की विधानसभा में एक ही पार्टी डी.एम.के. का प्रचंड बहुमत था (जैसा प्रधानमंत्री का लोकसभा में है) उस सरकार को प्रधानमंत्री ने 30 या 31 जनवरी, 1976 ई. को बरखास्त कर दिया और वहाँ के मुख्यमंत्री समेत सात मंत्रियों पर जाँच-आयोग बैठा दिया। यह उल्लेखनीय है कि केन्द्र द्वारा राज्य के मंत्रियों पर जाँच-आयोग विगत 29 वर्षों के आजाद भारत में पहले कभी कहीं नहीं बैठाया गया था। यह भी उल्लेखनीय है कि (क) वहाँ की विधानसभा की कालावधि केवल डेढ़ महीने शेष थी, (ख) विधानसभा तथा लोकसभा के चुनाव का निर्धारित समय मार्च 1976 ई. था। (ग) डी.एम.के. ने संविधान के अनुसार निर्धारित समय परही चुनाव कराने के लिए लगभग पाँच लाख लोगों की उपस्थिति में पार्टी-सम्मेलन आयोजित कर सर्वसम्मति से प्रस्ताव द्वारा राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री से आग्रह किया था। (घ) लाखों लोगों ने तार और पत्र भेजकर भी उक्त समय पर चुनाव की माँग की थी, तथा (ड.) डी.एम.के ने विधानसभा के साथ-साथ लेाकसभा के चुनाव के लिए भी आवेदन किया था। चूँकि दोनों सभाओं की अवधि एक ही साथ विगत मार्च में समाप्त हो रही थी, अतः दोनों का ही साथ-साथ चुनाव उचित एवं अनिवार्य था। मगर हुआ यह कि इधर लोकसभा तथा अपने प्रधानमंत्रित्व की अवधि तो प्रधानमंत्री ने एक साल के संविधान में संशोधन करके बढ़ा ली, उधर तमिलनाडु की सरकार को बरखास्त कर दिया, विधानसभा को विघटित कर दिया और राज्य पर राष्ट्रपति शासन ठोक दिया। डबल स्टैंडर्ड या कपटाचार का यह एक विशाल सबूत है। मैं जनता हूँ, आप सच्चे संत हैं-काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, राग, कपट, द्वेष आदि से सर्वथा परे। उक्त पक्षपात, अन्याय, बेईमानी, जनतंत्र-हत्या, कपटाचार और डबल स्टैंडर्ड पर आपको तनिक भी क्रोध क्या नहीं हुआ होगा?

आप यह जरूर जानते होंगे कि जिन अभियोगों के आधार पर वहाँ की सरकार को बरखास्त करके मंत्रियों पर जाँच-आयोग बैठाया गया, वे अभियोग 1972-73 ई. में अन्नाद्रमुक और सी.पी.आई. के चंद विधायकों द्वारा लगाए गए थे। तीन वर्षो की लंबी अवधि में केन्द्र ने अभियोगों की कभी कोई जाँच नहीं कराई, क्योंकि (क) 1971 ई. के लोकसभा के चुनाव में प्रधानमंत्री ने डी.एम.के के साथ चुनाव-समझौता करके ही लोकसभा की कुछ सीटें कांग्रेस के लिए हासिल की थीं, और (ख) राष्ट्रपति के चुनाव में प्रधानमंत्री को डी.एम.के. से बहुत (सारे) वोटों की उम्मीद थी। हुआ भी वैसा ही। डी.एम.के. ने उनकी उम्मीद पूरी की। अब प्रधानमंत्री के सारे काम बन गए, तब डी.एम.के. को समूल नष्ट करने की उनकी योजना शुरू हो गई। इमरजेंसी को रामबाण बनाकर उन्होंने अपनी योजना पूरी की।

यह सर्वविदित है कि इमरजेंसी लागू ही डी.एम.के. की कार्य-समिति ने विशेष बैठक तथा प्रस्ताव द्वारा इमरजेंसी का तीव्र विरोध किया था और उसकी अविलंब समाप्ति की माँग की थी। मद्रास के मशहूर बीच (समुद्र तटीय मैदान) पर आयोजित लगभग तीन लाख लोगों की सहज समवेत सभा में मुख्यमंत्री करुणानिधि ने इमरजेंसी के विरुद्ध ओजस्वी, तर्कपूर्ण और तथ्यपूर्ण भाषण दिया था। उनके जोशीले भाषण के बाद इमरजेंसी खत्म करने के प्रस्ताव के पक्ष में न सिर्फ लाखों हाथ उठे थे, बल्कि जोश और उमंग में असंख्य नौजवान उछल भी पड़े थे।

इस समाचार और अद्भुत दृश्य से प्रधानमंत्री का पारा चढ़ना लाजिमी थी। सत्ता-लोभ और क्रोध कदापि विवेक, न्याय, औचित्य आदि को नहीं देखता। डी.एम.के. की समय पर चुनाव कराने की माँग सर्वथा उचित थी। संविधानानुसार निर्वाचन का निर्धारित समय मार्च 1976 ई. था। चुनाव में सभी पार्टियों को अवसर मिलता आरोप-प्रत्यारोप करने का, अपनी-अपनी नीति बखानने का, चुनाव घोषणा-पत्र और कार्यक्रम पेश करने का। चुनाव-प्रचार में कुरसी कांग्रेस, सी.पी.आई. औरअन्नाद्रमुक तीनों ही दल संयुक्त रूप से डी.एम.के. की सरकार की बुराइयों, खराबियों और कथित भ्रष्टाचार के कारनामों का परदाफाश करते हुए जनता से अपील करते कि डी.एम.के. की सरकार फिर से नहीं बनने दें। जवाब में डी.एम.के. वाले भी उन तीनों दलों पर हमला करते, साथ ही अपनी उपलब्धि और सफलता गिनाते। यही लोकशाही के तौर-तरीके हैं, कड़े-काूनन हैं, नई-परंपराएँ हैं, डी.एम.के. की यह माँग भी थी। जनता की अदालत, जो सबसे बड़ी अदालत होती है, में सबकी किस्मत का फैसला हो जाता, परंतु प्रधानमंत्री ने अन्याय और सवंवैधानिक मार्ग का अवलंबन कर उस सरकार पर हमला बोल दिया, मंत्रियों को बरखास्त कर दिया और सन् ‘72-73’ के गड़े मुरदे (अभियोगों) को उखाड़कर कई मंत्रियों पर जाँच-आयोग बहाल कर दिया। प्रधानमंत्री ने जो कुछ किया है, उसके तात्कालिक लाभ उन्हें जरूर मिल गया है, किंतु उसके दूरगामी परिणाम बड़े गंभीर और खतरनाक हो सकते हैं। उनके कदम और कार्रवाई से पृथक्कतावादी मनोवृतियाँ एवं शक्तियों को बढ़ावा मिल सकता है। उनके सोचने के लिए खुराक और प्रचार करने के लिए मसाला मिल गया है कि दिल्ली की हुकूमत से द्रविड़ों को कभी न्याय नहीं मिल सकता। उनके वैसा सोचने और कहने में काफी दम है। यह कहाँ का न्याय है कि श्री अच्युत मेनन (केरल) के मंत्रिमंडल की मियाद की बढ़ती एक साल के लिए कर दी गई, मगर डी.एम.के. के मंत्रिमंडल को न सिर्फ बरखास्त कर दिया गया, बल्कि उसे कटघरे में भी खड़ा किया गया। यो कठघरे में खड़ा करने के लिए प्रधानमंत्री के विरुद्ध औरों से अधिक ही अभियोग हैं-गंभीर से गंभीर। श्री बंशीलाल एवं स्व. ललित नारायण मिश्र के विरुद्ध विधायकों और सांसदों द्वारा बार-बार लगाए गए अत्यंत गंभीर अभियोगों से सारा संसार अवगत है। लेकिन प्रधानमंत्री ने जाँच कराने से हमेशा इनकार किया। क्या यह डबल स्टैंडर्ड नहीं है? भ्रष्टाचार के विरुद्ध जाँच-आयोग भ्रष्ट कांग्रेसियों के खिलाफ भी बैठना चाहिए, बल्कि ज्यादा और जरूर बैठना चाहिए, क्योंकि सर्वाधिक भ्रष्ट और बेईमान तो वे ही हैं। सिर्फ डी.एम.के. या विरोधी दलों के मंत्रियों के विरुद्ध ही जाँच बैठाना-न्यायदृष्टि, समदृष्टि या निष्पक्ष दृष्टि नहीं, बल्कि नग्न पक्षपात है।

आप जानते हैं, बाबा! चुनाव में कितना भ्रष्टाचार है। भ्रष्टाचार की माँ सत्ता कांग्रेस है। सबसे अधिक गुनाहगार प्रधानमंत्री हैं। स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव हेतु चुनाव कानून में सुधार, कायदे-कानून का कारगर अमल, विश्वसनीय चुनाव यंत्र का निर्माण एवं स्वस्थ परंपराओं का विकास देश की सर्वसम्मत माँगे हैं, क्योंकि इनके बिना सही चुनाव असंभव है और सही चुनाव के बिना जनतंत्र मखौल है। मगर प्रधानमंत्री ने जहाँ एक ओर अन्य कानूनों का जंगल लगा दिया, वहाँ चुनाव-कानून में सुधार करने से अब तक बराबर इनकार किया है। जाहिर है, अपने राजनीतिक भ्रष्टाचार को प्रधानमंत्री अक्षुण्ण रखना चाहती हैं। भ्रष्टाचार मिटाने का उनका नारा एक बड़ा भारी धोखा है।

अभी उस दिन आपके संबंध में यह समाचार आया कि आपने आमरण अनशन का संकल्प त्याग दिया। समाचार में आपके एक वक्तव्य का भी उल्लेख था। सो अखबारों में प्रथम पृष्ठ पर एक ही काॅलम के अंदर सिर्फ आठ-दस पंक्तियों में छोटे-छोटे अक्षरों में समाचार छपा था। मैं सोचता हूँ, क्या जमाना आ गया! आप सरीखे अत्यंत उच्च कोटि के राष्ट्रीय नेता, राष्ट्रीय महत्व का समाचार, उसे अखबारों ने छापा अपेक्षाकृत महत्त्वहीन समाचार की तरह, उतना भी शायद इसलिए छापा, चूँकि आंदोलन और अनशन नहीं करने की घोषणा थी। आपके अनशन और आंदोलन की घोषणा-संबंधी समाचार को तो किसी दैनिक अखबार में पहले छपने ही नहंी दिया गया था। ब्रिटिश राज्य या इमरजेंसी के पहले के भारत में यदि आपने उक्त प्रकार के संकल्प की घोषणा की होती तो देश मेें तहलका मच जाता और अखबारों में उक्त समाचार को अत्यंत महत्त्वपूर्ण समाचार समझकर प्रथम पृष्ठ पर प्रमुख ढंग से छापा जाता। किंतु आज के भारत में आप जैसे राष्ट्रीय पुरुष महत्त्वहीन बना दिए गए हैं। अगर आपका कुछ महत्त्व रह गया है तो वह उसी हद तक जिस हद तक, आप प्रधानमंत्री के काम या इस्तेमाल हो सकते हैं। उनके पक्ष या समर्थन की आपकी बातों का प्रचार तो करोड़ों रुपए खर्च करके भी किया जाएगा, किंतु आपकी अन्य बातों का प्रचार क्या, साधारण समाचार के रूप में भी किसी को नहीं जानने दिया जाएगा।

आज अखबारों में और रेडियो पर सबसे ज्यादा कौन है? सिर्फ दो- प्रधानमंत्री और संजय गांधी। प्रधानमंत्री तो खैर प्रधानमंत्री हैं, ये संजय कौन होते हैं? क्या वे राजकुमार हैं, युवराज हैं? नहीं, क्योंकि यह राजतंत्र नहीं, कहते हैं कि जनतंत्र है। तब क्या वे कोई बुद्धिजीवी या विद्वान् हैं, क्या आध्यात्मिक या नैतिक पुरुष हैं, क्या कोई समाज-सेवक, रचनात्मक कार्यकर्ता, जन-नेता या राजनेता हैं? आप जानते हैं बाबा, वे कहीं कुछ नहीं है, फिर भी आज वही सबकुछ हैं, सबसे ऊपर हैं, आपसे भी ऊपर। सबूत चाहिए? अखबारों को उठाकर देख लीजिए। आज उनका समाचार अखबारों में उसी प्रमुखता से छपता है, जिस प्रमुखता से राष्ट्रबादी अखबार एक जमाने में महात्मा गांधी, पं. नेहरू, सरदार पटेल, सुभाष बाबू, राजेन्द्र बाबू और राजाजी आदि को छापते थे। इनका क्यों छपता है? किस गुण पर? बस, एक ही कारण है, प्रधानमंत्री की तानाशाही के कारण आप जैसे या जे.पी. जैसे राष्ट्रीय नेता भी अखबारों में आज प्रायः शून्य हो गए और संजय सर्वोपरि हो गए हैं।

अब जरा उनके कार्यक्रम के बारे में सुनिए। वे जहाँ जाते हैं, उनके ऊपर सरकारी और गैर-सरकारी कोष से लाखों रुपए खर्च होते हैं। भोपाल, इंदौर, गुंटूर, कलकत्ता, पंडौल (बिहार), लखनऊ, काशी, कानपुर, फारबिसगंज के अतिरिक्त प्रत्येक कार्यक्रम पर कम-से-कम दो और ज्यादा-से-ज्यादा दस लाख के खर्च का अनुमान लोग बताते हैं। देश में किसी मंत्री के बेटे पर कोई सरकारी खर्च या प्रबंध नहीं होता, होना भी नहीं चाहिए। परंतु प्रधानमंत्री के पुत्र पर पूरा-पूरा हो रहा है, जैसा राजतंत्रमें युवराज पर होता था। श्री संजय गांधी के लिए हर जगह सरकार की ओर से सारी व्यवस्था रहती है और बेशुमार खर्च होते हैं। मंत्रियों के बारे में बाबा, कुछ न पूछिए! चाहे वे केन्द्र के मंत्री हों या राज्य के, श्री संजय के सामने वे चाकर या चारण बने रहते हैं। जब मंत्रियों का ही ऐसा हाल तो भला अफसरों का क्या कहना! यही कारण है कि लोग कहते हैं कि वे युवराज हैं। उनकी सभाओं में दूर-दूर से लोगों को लादकर लाया जाता है- टेªनों से, ट्रकों से, टैªक्टरों से, टैक्सियों से, बसों से, जीपों से या अन्य सवारियों से। बहुत लोगों को जानवरों की तरह हाँककर पैदल भी पहुँचाया जाता है। उनकी माँ की सभाओं में भी इमरजेंसी के बाद से भीड़ जुटाने का प्रायः यही नियम चल पड़ा है। सभाओं में हाजिर इस लदुआ भीड़ को लोकप्रियता का प्रमाण बताया जाता है। श्री संजय के लिए सरकारी साधनों का इस्तेमाल तथा मंत्रियों-अधिकारियों की दासता जनतांत्रिक मूल्य-मर्यादाओं और सार्वजनिक जीवन के पतन की पराकाष्ठा है। फिर भी लोग चुप हैं, क्योंकि वे आतंकग्रस्त हैं। कौम को कायर और युवा वर्ग को लोभी, शराबी और भ्रष्ट बनाने में माँ-बेटे दोनों मशगूल हैं। यह राष्ट्र के साथ-साथ वर्तमान पीढ़ी और भावी पीढ़ी के प्रति अक्षम्य अपराध है। माँ तो सबकी छाती पर पहले से सवार है, अब बेटा को भी सबके सिर पर बैठाया जा रहा है।

आपने सुना ही होगा, संविधान में व्यापक संशोधन किए जानेवाले हैं। सत्रावसान के दिन या उसके एक-दो दिन पहले 56 उप-खंडों का एक विस्तृत संसद् में उपस्थित किया गया। आगामी नवंबर के मध्य एक संविधान संशोधन संपन्न हो जाएगा। इमरजेंसी से आज तक जितने नए कानून इनसान की आजादी, मौलिक अधिकार एवं जनतंत्र का गला घोटने के लिए बनाए जा चुके हैं, जितने संशोधन संविधान में घुसाए जा चुके हैं और अब जो व्यापक संशोधन के रूप में प्राणघातक प्रहार किए जानेवाले हैं, उनके परिणामस्वरूप संविधान का मूलस्वरूप (बुनियादी ढाँचा) ही बदल जाएगा। संशोधित, परिवर्तित एवं परिवर्धित संविधान के आधार पर जो भारत बनेगा, वह गुलामों का भारत होगा, आजाद और स्वाभिमानी लोगों का भारत नहीं। जहाँ तक गरीबी, गैर-बराबरी, बेकारी, बेईमानी और भ्रष्टाचार को मिटाने का सवाल है, मिटेगा नहीं, उनमें और ज्यादा इजाफा होगा, जैसा आजतक होता रहा है। उन्हें मिटाने का उनका ऐलान धोखा है।

इस संबंध में एक बात और। प्रधानमंत्री और विधिमंत्री ने कहा है कि संविधान-संशोधन के प्रश्न पर राष्ट्रीय वाद-विवाद, विचार-विमर्श होगा (नेशनल डिबेट होगा), यह सफेद झूठ है। सिर्फ एक ही सबूत पेश करता हूँ। लोकमान्य तिलक के निर्वाण-दिवस के अवसर पर एक अगस्त को दिल्ली में एक संगोष्ठी होनेवाली थी, जिसमें विख्यात विधि-वेत्ता, संविधान ज्ञाता, संसद्-सदस्य तथा विरोधी दलों के नेता भाग लेनेवाले थे। विषय था--संविधान-संशोधन। सरकार ने लिखकर हुक्म भेजा-संगोष्ठी की इजाजत नहीं दी जाएगी। ऐसे सबूत सैकड़ों हैं। अतः राष्ट्रव्यापी विचार या विवाद ;छंजपवदंस कमइंजमद्धनहीं, आंशिक विवाद ;च्ंतजपंस कमइंजमद्ध एकतरफा और पक्षपातपूर्ण विवाद चल रहा है और चलेगा।

नशाबंदी में आपकी बेहद दिलचस्पी है। भुलावा और ठगैती के लिए कहा गया आपसे कि नशाबंदी का काम जोर-शोर से होगा। नशाबंदी हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के कार्यक्रमों का एक अभिन्न अंग था सन् 1920 से सन् 1947 तक। हजारों-लाखों लोग इसके लिए सिर्फ जेल ही नहीं गए थे, लोगों ने लाठियों और गोलियों का भी सामना किया था। मगर आज नशाखोरी हजार गुना ज्यादा है पहले से। आप जरा देखें, नसबंदी पर कितना जोर है, कितना प्रोपगंडा है, कितना विज्ञापन है, कितनी सभा-सोसाइटी है, कितना खर्च है और कितनी जोर-जबरदस्ती है! गरीब लोग आहट पाते ही गाँव छोड़कर और शहर छोड़कर भाग खड़े होते हैं। क्या नसबंदी के लिए उसका सौवाँ या हजारवाँ हिस्सा भी कभी किया गया या किया जाएगा? कदापि नहीं। आप इसी से समझ जाइए महात्मा गांधी या संत विनोबा के कार्यक्रम के लिए अधिक कुछ कहना बेकार है। मगर नसबंदी के लिए दर्जनों स्थानों पर गोलियाँ चल चुकी हैं, दर्जनों लोग भूने जा चुके हैं तथा हजारों लोग लापरवाही से की गई नसबंदी के चलते मौत के घाट उतारे जा चुके हैं।

नसबंदी की तरह आजकल हदबंदी पर भी बातचीत का जोर है। आप और आपके विचार के भूदानी लोग प्रधानमंत्री को धन्यवाद दे रहे होंगे। भूमि-वितरण और भूमि पर कब्जा, दोनों ही होता तो धन्यवाद की कोई बात भी होतीं, मगर वितरण और कब्जा में जमीन-आसमान का फर्क है। प्रोपगंडा बहुत है, असलियत बहुत कम है और जो थोड़ी सी असलियत है, उसके लिए भी धन्यवाद की पात्र प्रधानमंत्री नहीं, बल्कि जे.पी. हैं, छात्र-युवक हैं, विरोधी दल हैं और जनता है। न उनका प्रबल आंदोलन होता, न इंदिरा राज पर खतरा बढ़ता, न 20 सूत्री प्रोग्राम आता, न ही भूमि वितरण होता! आखिर आपका भूदान-आंदोलन तो 1951 ई. से ही चल रहा है, सन् ‘53 से सन्‘68 तक वह काफी जोर पर था। आपकी शारीरिक एवं नैतिक शक्ति के साथ-साथ जे.पी. की शक्ति, सर्वोदय नेताओं और कार्यकर्ताओं की शक्ति, प्रायः सभी पार्टियों का समर्थन, राज्य सरकारों का समर्थन, पं. नेहरू और श्रीमती इंदिरा गांधी का समर्थन, फिर भी नहीं हुआ भूमि-वितरण। सन् ‘67 से ही श्रीमतीजी प्रधानमंत्री है, सन् ‘69 से तो साक्षात् क्रांति की देवी हैं। फिर भी नहीं हुआ भूमि-वितरण। जो तत्परता, तेजी और धूमधाम आज 15 महीनों से है, वह पहले क्यों नहीं हुई? उत्तर स्पष्ट है, प्रधानमंत्री के लिए सिद्धांत, सेवा, समाजवाद, क्रांति आदि कोई चीज नहीं, सत्ता ही सर्वोपरि है। सत्ता पर खतरा, तो जरूर कुछ करो, वरना कुछ भी नहीं। सन् 1975 के जून के वाद से हदबंदी और जमीन बँटवारे पर जो जोर है, उसका यही रहस्य है।

इस संबंध में दो बातें ध्यान देने लायक हैं। एक तो यह कि बड़े-बड़े जमीन मालिकों से फाजिल (फालतू) जमीन लेने की बात प्रधानमंत्री को तब सूझी, जब उनके पास फाजिल जमीन एकदम नहीं या बहुत कम रह गई थी। सन् 1974 से ‘75 के बीच उन्होंने सारी जमीन या ज्यादा जमीन की बिक्री या व्यवस्था बड़े आराम से कर ली थी। अब रस नहीं सिर्फ सिट्ठी शेष थी। भूमिहीनों, हरिजनों और आदिवासियों को प्रधानमंत्री ने रसपान नहीं कराया, सिर्फ सिट्ठी सूँघा दी और कहा -‘‘मैं क्रांति की देवी हूँ, तेरे ही लिए अवतरित हुई हूँ, गम नहीं, खुशी मनाओ, मेरा जिंदाबाद मनाओ, सिट्ठी सूँघने से भी बेड़ा पा हो जाएगा।’’ प्रधानमंत्री और उनकी हुकूमत क्या है, कैसी है?‘‘ हुकूमत के हाथी निअर दाँत दू-दू गो। देखाबे के दोसर चबाबे के दोसर’’! दूसरी बात यह कि खेती करने लायक सरकारी जमीन लगभग 12, 13 करोड़ एकड़ है। वर्षों पूर्व भूतपूर्व राष्ट्रपति श्री वी.वी. गिरी ने अपनी पुस्तिका, ‘करोड़ों को काम’ ;श्रवइम वित जीम उपससपवदेद्ध के जरिए सरकार को यह सुझाव दिया था कि उक्त 12-13 करोड़ एकड़ जीमन को भूमिहीनों के बीच बाँटकर करोड़ों बेकारों को रोजी-रोटी देने के साथ-साथ अनाज की पैदावार की वृद्धि भी की जा सकती है।

सन् 1949 से स्वर्गीय डाॅ. लोहिया इस काम के लिए भूमिसेना के निर्माण पर बराबर बल देते रहे। लेकिन जो काम सरकार के बिल्कुल अपने वश का था और अपनी इच्छा पर निर्भर था, वह भी सरकार ने नहीं किया। डाॅ. लोहिया को छोड़िए, अपने राष्ट्रपति को भी प्रधानमंत्री ने ठुकरा दिया। इसका कारण? प्रधानमंत्री को जमीन के बँटवारे और गरीबों के उद्धार के लिए कोई अन्य ठोस और कारगर कार्यक्रम लागू करने की कभी कोई इच्छाशक्ति या संकल्प-शक्ति ही नहीं थी। जैसे भूत को देखकर ओझा याद पड़ने की कहावत है, वैसे ही सत्ता खतरा में पड़ने पर प्रधानमंत्री के लिए हाय गरीब, हाय भूमिहीन, हाय हरिजन, हाय आदिवासी, हाय अल्पसंख्यक रटने की आदत है।

अंत में, इस विनती के साथ विदा लेता हूँ कि जब सत्य, स्वराज, स्वतंत्रता, सत्याग्रह, जनाधिकार, विकेन्द्रीकरण और नैतिकता या यों कहिए कि गांधी के सारे आदर्श विश्वास और 50 वर्षों के प्रयोग और कमाई, जो मानवता की अमूल्य निधि है, आज गंभीर खतरे में है, तो आप ललकारें और हुँकार करें तथा अहिंसक, विद्रोह को संगठित एवं सफल करें। जनता पूरा साथ देगी, युवा छात्र रक्त-दान देंगे, बलिदान करेंगे।

सादर प्रणाम के साथ


आपका
कर्पूरी ठाकुर
दिनांक: 15.9.1976