चौथा पत्र
दिनांक 13-11-1976
पूज्य बाबा,
जनवरी ‘76 और सितंबर ‘76 के बीच मैं आपको तीन पत्र लिख चुका हूँ। अब आज चैथा और अंतिम पत्र लिखने बैठा हूँ। अंतिम इसलिए कि सत्य, स्वातंन्न्य, जनतंत्र और न्याय आदि के बारे में आपको कुछ लिखना अब मुझे ऊसर खेत में बीज बोने के समान लगता है। काश! मेरी यह धारणा गलत साबित होती।
विगत अक्तूबर माह के अंतिम सप्ताह में होने वाले वृहद आचार्य-सम्मेलन के आयोजन को स्थगित कराते हुए आपने श्रीमन्नारायण से यह ऐलान करवाया था कि सम्मेलन-स्थगन आप इसीलिए करवा रहे हैं, ताकि इमरजेंसी उठाने, आम चुनाव कराने और नागरिक तथा व्यक्तिगत आजादी लौटाने आदि के संबंध में प्रधानमंत्री अक्तूबर-नवंबर में आराम से निर्णय-घोषणा कर सकें।ऐलान में कहा गया था कि उक्त महत्वपूर्ण कार्य करने में आप आचार्य-सम्मेलन करके प्रधानमंत्री के लिए कोई बाधा, दिक्कत और परेशानी पैदा नहीं करना चाहते। प्रधानमंत्री पर विश्वास करके आपने तो सम्मेलन को स्थगित करा दिया, परंतु उन्होंने क्या पुरस्कार दिया आपको, आचार्यो और राष्ट्र को? जैसा आप जान ही चुके होंगे, संसद् के विगत सत्र में उन्होंने चेरी संसद् से चार फैसले कराए-(1) दल-बदल बंदी विधेयक, जो लगभग 4 वर्षो से पार्लियामेंट में पेश है, को पुनः अगले सत्र के अंतिम दिन तक के लिए स्थगित करवा दिया, यद्यपि उसे फौरन पास करने की सबसे ज्यादा जरूरत थी और उसके लिए जनता की जबरदस्त माँग कल भी थी और आज भी है। (2) संविधान-संशोधन विधेयक को झटपट पास करा लिया, यद्यपि सारे देश में उसका प्रचंड विरोध आज भी चल रहा है। (3) लोकसभा की कालावधि को एक साल के लिए बढ़वा लिया। (4) आम चुनाव को फिर खटाई में डलवा दिया।
प्रधानमंत्री ने आपको धोखा क्यों दिया? आपका निरादर क्यों किया? इसके मुख्य तीन कारण हैं -
प्रथम - वह आपके सर्वोदय-संगठन और आचार्य-सम्मेलन में सेंध मार चुकी हैं, बहुत बडी माँद बना चुकी हैं।
द्वितीय - वह आपको अच्छी तरह पहचान चुकी हैं।
तृतीय - वह तानाशाह बन चुकी हैं।
तानाशाहों में साधु, संत, सत्यपुरुष और आचार्य आदि के लिए सच्चा आदर-सम्मान नहीं, बल्कि नफरत, निरादर और उपहास हुआ करता है। आपको उनके बारे में भले भ्रम हो, लेकिन उन्हें आपके बारे में कतई भ्रम नहीं है। वह समझ चुकी हैं कि आप विद्रोही (मोहनदास करमचंद) गांधी के सच्चे वारिस नहीं हैं तथा न्याय और अन्याय इनसान की आजादी और गुलामी, जनतंत्र और एकतंत्र के बीच आंदोलन-संघर्षों में आप या तो मौन रहेंगे (इसका भी अर्ध सम्मति या सहमति ही होता है) अथवा पंच बनना पसंद करेंगे।
संविधान-संशोधन से जनता की कीमती आजादी लुट गई, विधान का बुनियादी ढाँचा बदल ही नहीं गया, खत्म हो गया। सर्वोच्च न्यायालय को बौना बना दिया गया, उच्च न्यायालय ऊँचे से नीचे ढकेल दिया गया गलतखाने मौलिक अधिकार में डाल दिए गए, लेकिन आप ध्यानस्थ, समाधिस्थ मौन यती की तरह अचल-अडिग बैठे सबकुछ देखते-सहते रहे। उधर सबकुछ कर-कराकर प्रधानमंत्री पूरी तानाशाह बन गईं और सिर्फ अपने लिए ही नहीं, अपनी औलाद के लिए भी रास्ता बना गईं। किंतु आप? कहा जाता है, जब रोम जल रहा था, नीरो वंशी बजा रहा था। जनता की कुरबानी से हासिल जनता की आजादी जब लुट रही है, तब आप धृतराष्ट्र बने बैठे केवल कथा सुन रहे हैं।
मैं आचार्य कृपालानी और महात्मा गांधी के आप्त सचिव श्री प्यारेलाल नय्यर को नमन करता हूँ। इन्होंने संविधान-संशोधन के विरुद्ध देश के प्रख्यात विधिवेत्ताओं, अवकाश-प्राप्त न्यायाधीशों, आचार्यों, लेखकों, कवियों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों, निष्पक्ष विचारकों तथा विरोधी दलों के नेताओं के साथ सुर-में-सुर मिलाकर आजादी के लिए उठनेवाली नई आवाज को उजागर किया है। कृपलानीजी तथा प्यारेलालजी ने फिर से साबित किया है कि गांधीवादी बाँझ नहीं हो गया है, यद्यपि कुछ तथाकथित गांधीवादी उसे बाँझ बनाने से बाज भी नहीं आ रहे हैं। आज गांधी-शिविर में सर्वश्री आचार्य कृपलानी, प्यारेलाल, दादा धर्माधिकारी, धीरेन्द्र मजूमदार, नवकृष्ण चैधरी, सिद्धराज ढडढ़ा, प्रो. ठाकुरदास बंग, जयप्रकाश नारायण जैसे लोग एक तरफ हैं और आप जैसे लोग दूसरी तरफ। यह गांधीवादियों का दुर्भाग्य है कि विद्रोही, क्रांतिकारी और सत्याग्रही बनने को उत्सुक हैं, यद्यपि प्रधानमंत्री ने अनेक बार स्पष्ट संकेत दे दिया है कि वह आपको पंच नहीं मानतीं। भारत की आजादी छीननेवाली और जुल्म-ज्यादती करनेवाली ब्रिटिश सरकार को महात्मा गांधी ने शैतान-सरकार की संज्ञा दी थी, परंतु जनता की आजादी लूटनेवाली इंदिरा सरकार को यही संज्ञा देने के लिए आप जैसे शब्दकुबेर मानो शब्द-कंगाल हो गए हैं! आप तो अच्छी तरह जानते हैं बाबा कि अंग्रेजी राज का यह दावा था कि हमारा राज भारतवासियों की भलाई तथा उन्हें बालिग और काबिल बनाने के लिए है। राजभक्त भारतवासी उनके इस दावे को न सिर्फ स्वीकार करते थे, बल्कि उसे बनाए रखने और उसकी चाकरी करने में गर्व अनुभव करते थे। हाँ, इतनी बात जरूर है कि ऐसे नासमझों और गद्दारों की तादाद आखिर आते-आते ज्यादा नहीं रह गई थी। आज कुरसी कांग्रेस का भी दावा है कि ब्रिटिश राज की तरह इंदिरा राज भी जनता के कल्याण-हित, उद्धार के लिए, जनता की आजादी और जनतंत्रता की रक्षा के लिए जनता को अनुशासित तथा कर्तव्यपरायण बनाने के लिए औरदेश में सामाजिक-आर्थिक क्रांति लाने के लिए है। मेरे जैसे लोगों को लगता है, रानीभक्त भारतवंसियों और निपट स्वार्थांधों को छोड़कर कोई भी विवेकशील भारतवासी उसके दावे में अब रत्ती भर भी विश्वास नहीं करता। बाबा, अब आप भी स्पष्ट कर दीजिए कि उक्त ढाँचे को आप क्या मानते हैं-झूठ या सच? देश और इतिहास के लिए आपको यह बात जानना परम जरूरी हो गया है कि आप सत्यभक्त, स्वातंन्न्यभक्त और प्रजाभक्त लोगों में अब रह गए हैं या नहीं? करोड़ों आजादी भक्त प्रजा और करोड़ों देशवासी तो अब यही मान रहे हैं कि इंदिरा-राज इनसान की आजादी को सत्यानाश में मिलाने तथा गरीबी, बेकारी, गैर-बराबरी, बेईमानी, झूठ, लूट, भ्रष्टाचार, कदाचार, अत्याचार, अनगिनत टैक्स, लगान, दाम, दमन, दंभ, बेटावाद, पूँजीवाद और एकाधिकारवाद को उत्तरोत्तर बढ़ाने के लिए है। जिस तरह अंग्रेजभक्त भारतवासी देशद्रोही गिने जाते थे, उसी तरह इंदिरा-भक्त या इंदिरापरस्त लोग भी जनद्रोही, न्यायद्रोही, स्वातंन्न्यद्रोही एवं लोकतंत्रद्रोही हैं।
अंत में एक बात और। सन् 1975 के 25 दिसंबर को आपने मौन भंग किया। उक्त अवसर पर पवनार में एक बृहद सम्मेलन हुआ। आपने अपने प्रवचन में आपातस्थिति के संबंध में एक भी शब्द कहना आवश्यक नहीं समझा, यद्यपि सारा देश आपसे अत्यधिक आशा लगाए बैठा था। प्रधानमंत्री ने उसका अर्थ यह लगाया कि आप उनके कदम के समर्थक हैं। सम्मेलन समाप्ति के 5 दिन बाद ही उन्होंने लोकसभा की कालावधि बढ़ाने तथा चुनाव टालने की घोषणा कर दी। फिर उसी के आस-पास दो अध्यादेशों के जरिए उन्होंने (1) संविधान-प्रदत्त सप्त स्वातंन्न्यों को स्थगित कर दिया। (2) अखबारों और छापाखानों (प्रेस) को बेड़ियों में जकड़ दिया। आपने 16,17,18 जनवरी, 1976 ई. को पवनार में बृहद आचार्य-सम्मेलन बुलाया, जिसमें एक सर्वसम्मत निवेदन स्वीकृत हुआ। उसमें एक निर्णय यह भी लिया गया कि जून 1976 ई. में वृहद आचार्य-सम्मेलन बुलाया जाएगा। लेकिन खेद का विषय है कि जून का ही नहीं, अक्तूबर का सम्मेलन भी आपने स्थगित करा दिया। प्रधानमंत्री जान गई हैं, अच्छी तरह समझ गई हैं कि उनका 7 खून भी आपके दरबार में माफ है। अब फिर उन्होंने लोकसभा का समय बढ़ा दिया, चुनाव को टाल दिया और संविधान को बदल दिया। क्या आपका कदम और उनका कदम प्रकारांतर से कहीं मिलकर तो नहीं चलता है? जो हो, विगत 16 महीनों में देश में गुणात्मक परिवर्तन हो चुके हैं-संविधान में, अनेक कानूनों में, अदालतों में, अखबारों में, लोकसभा में, विधानसभाओं में, लोकतांत्रिक संस्थाओं, तौर-तरीकों, मूल्य-मर्यादाओं तथा शासन के पूरे विचार-आचार में। उक्त परिवर्तन अच्छाई, भलाई और प्रगति के लिए नहीं, बल्कि बुराई, नुकसान और सत्यानाश के लिए हुए हैं। इस विषम स्थिति में क्या आपका कोई कर्तव्य नहीं है? और कुछ नहीं तो कम-से-कम एक बात तो अकाट्य है कि आप आचार्य-सम्मेलन (जनवरी 1976 ई.) के निर्णयों से बँधे हुए हैं। आप उन पर अमल के लिए अतिशीघ्र कदम उठाइए, संतों और आचार्यों पर से जनता का विश्वास नहीं उठने दीजिए तथा विनोबा में आस्था पुनःस्थापित कीजिए। आज आदर्शों, सत्यों, स्वातंन्न्यों तथा जनाधिकारों की चिताएँ प्रधानमंत्री के हाथों जलाई जा रही हैं। गंभीर चुनौती का सामना है। यदि गांधी का अंश, गांधी की छायाकृति आपमें कहने भर को भी शेष है, तो बाबा, अब आप तनिक भी देर नहीं कीजिए। उठ खड़े होइए, अहिंसा-गांडीव फेंकिए, आदर्शों, अधिकारों और आजादियों को बचाने के लिए। देश होशियार है। जनता तैयार है। मगर यह आप तभी कर सकते हैं, जब अपने ही हाथों अरमानों, आशाओं, विश्वासों, निर्णयों, संकल्पों और सामथ्र्यों की चिता आप नहीं जलाएँगे। बस, यही आपसे अंतिम प्रार्थना है।
टूटे हुए, हिले हुए विश्वास, फिर भी उम्मीद की आखिरी लौ के साथ आपसे विदा लेते हुए सादर प्रणाम के साथ-
सेवा में,
संत विनोबा भावे
ब्रह्म-विद्या मंदिर
पवनार, वर्धा।
आपका
कर्पूरी ठाकुर
13.11.1976 ई.