डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
दिनांक: 1 मार्च, 1963
विषय-भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति भारतरत्न डाॅ. राजेंद्र प्रसाद के निधन पर शोक-संवेदना व्यक्त करने के क्रम में।
श्री कर्पूरी ठाकुर-अध्यक्ष महोदय, जो प्रस्ताव सभा-नेता द्वारा पेश किया गया है, मैं उसका हार्दिक समर्थन करने के लिए खड़ा हूँ। अध्यक्ष महोदय, यदि किसी एक व्यक्ति ने विगत 45 वर्षों के अंदर बिहार के राजनैतिक और सामाजिक जीवन को सर्वोत्तम रूप से प्रभावित किया, तो वे पूज्य राजेन्द्र बाबू थे। वे एक अद्वितीय प्रतिभा के विद्यार्थी थे, उत्साह और उमंग के युवक थे, प्रकांड शिक्षा-शास्त्री थे, सर्वांगीण विद्यार्थी थे, स्वतंत्रता संग्राम के निर्माता थे और सबसे अधिक मानव-निर्माता थे। मैं नहीं जानता कि जिस युग में राजेंद्र बाबू विद्यार्थी थे, उस युग में जिस दिन से पाठशाला में उन्होंने प्रवेश किया, उस समय से लेकर विद्यार्थी जीवन के अंत तक, किसी विद्यार्थी ने सभी परीक्षाओं में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया हो, सिवाय राजेंद्र बाबू के। देश में किसी ऐसे विद्यार्थी का मुझे पता नहीं। अध्यक्ष महोदय, वे इतने बड़े विद्वान् थे और इतनी ऊँची उनकी वकालत चमक चुकी थी, फिर भी महात्मा गांधी के आह्वान पर अपने सारे अरमानों को लात मारकर जिस तरह अपने जीवन को देश के लिए, समाज के लिए और मानवता के लिए अर्पित कर दिया एवं जिस तरह 1917 से लेकर कल तक यानी 28 फरवरी, 1963 तक अपने जीवन का एक-एक क्षण सोचते समय, कार्य करते समय, मिलते-जुलते समय, लिखते-पढ़ते समय, देशहित के लिए और मानवता के लिए लगाया, वह सचमुच स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है। आपने और हमने देखा कि किस तरह सन् 1920-21 के असहयोग आंदोलन में, सन् 1931-32 के सत्याग्रह आंदोलन में, सन् 1940 के सत्याग्रह और सन् 1942 की महान् क्रांति में उन्होंने अपना जीवन दिया। देश की स्वतंत्रता के लिए बड़ी-से-बड़ी कुरबानी करने के लिए वे हमेषा तैयार रहते थे और बड़ी-से-बड़ी कुरबानियाँ करते थे। स्वतंत्रता के लिए उनके हृदय में अगाध प्रेम था, यह आज से दो महीने पहले सच्चे ढ़ंग से पता चला। चीनी आक्रमण के पश्चात् पटना में महती सार्वजनिक सभा में उन्होंने जो ओजपूर्ण भाषण दिया, चीनी आक्रमण का मुकाबला करने के लिए, चीनियों को मार भगाने के लिए, यहाँ तब कि तिब्बत को स्वतंत्र करने के लिए, देशवासियों को उन्होंने जो प्रेरणा दी और देशावासियों को जो आह्वान किया, यह प्रमाणित करता है कि वे न केवल अपने देश की स्वतंत्रता के सच्चे पुजारी थे, बल्कि संसार के किसी भी देश की स्वतंत्रता के और मानव स्वतंत्रता के अन्यतम पुजारी थे। उनकी महत्ता केवल विद्या के क्षेत्र में नहीं, केवल कानून के क्षेत्र में नहीं, केवल देश-सेवा के क्षेत्र में नहीं, केवल शिक्षा के क्षेत्र में नहीं, केवल रचनात्मक कार्य के क्षेत्र में नहीं, केवल मीटिंग की कार्रवाई चलाने के क्षेत्र में नहीं, केवल देश- निर्माण के सिलसिले में नहीं, बल्कि छोटी-छोटी बातों में भी परिलक्षित थी। हम देखते हैं कि राजेंद्र बाबू से जो लोग बात करने जाते थे, शाहाबाद, सारण, गाजीपुर या बलिया के लोग, यानी भोजपुरी भाषा-भाषी क्षेत्र के लोग, तो राजेंद्र बाबू भोजपुरी छोड़कर किसी दूसरी भाषा में उनसे बात नहीं करते थे। अपनी मातृभाषा के प्रति इतना प्रेम एकाध महापुरूष में ही देखा जाता है।
राजेंद्र बाबू सादा जीवन और उच्च विचार में न केवल विश्वास करते थे, बल्कि उस पर आचरण भी करते थे। सदाकत आश्रम में और विभिन्न क्षेत्रों में जिस सादा जीवन का परिचय उन्होंने दिया और जिस तरह संजीदगी और सादगी के साथ अमल किया, उससे लोगों को अपने जीवन को सादगी में ढालने की प्रेरणा मिलती है। अध्यक्ष महोदय, जैसा सभा-नेता ने कहा और विरोधी दल के उप-नेता ने कहा है, वे अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, फारसी और संस्कृत के महान् विद्वान थे। लेकिन मैं और आप यह भी जानते हैं कि जब वे बंगाल में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सभापति की हैसियत से अपने भाव व्यक्त करते थे तो बँगला भाषा-भाषियों के बीच बँगला में ही भाषण किया करते थे वे न केवल अपनी मातृभाषा से ही प्रेम करते थे, बल्कि दूसरों की मातृभाषा के प्रति भी उनमें वही अगाध प्रेम था। उनका ऐसा अभ्यास नहीं था कि किसी विषय पर वे लंबा भाषण करें, लेकिन जो भी वे संक्षेप में बोलते थे, सचमुच गागर में सागर दिया करते थे। एक सच्ची कहानी है कि जब वे कलकत्ता में प्रैक्टिस करने लगे तो एक मुवक्किल उनके पास आया। उस समय वहाँ पर आशुतोष मुखर्जी जज थे। उनके सामने उस मुवक्किल के संबंध मेें वकील की हैसियत से जो कुछ उनको लिखकर देना था, उन्होंने एक वाक्य में ही लिखकर दे दिया। मुवक्किल घबरा गया कि हमने कैसा वकील किया। लेकिन एक वाक्य में उन्होंने जो कुछ लिख दिया था, सर आशुतोष मुखर्जी उसे पढ़कर दंग रह गए और जब उस दिन कचहरी उठी तो सर आसुतोष मुखर्जी ने राजेंद्र बाबू को ढ़ूँढ़वाया और बुलाकर उन्हें अपने मोटरमें बैठाया तथा मोटर से अपने डेरे तक ले गए। जैसा उनका अभ्यास था, अपने भी रसगुल्ला खाया और राजेन्द्र बाबू को भी रसगुल्ला खिलाया और कहा कि तुमको कलकत्ता लाॅ काॅलेज का प्रोफेसर बनना हैं राजेंद्र बाबू झेंपनेवाले स्वभाव के थे, लेकिन उनके सामने उनको झुकना पड़ा और लाॅ काॅलेज की प्रोफेसरी स्वीकार करनी पड़ी। इसका अर्थ है कि वे विचार एवं वाणी में संयम तथा व्यवहार में संयम से काम करते थे और साधु की तरह रहते थे। उनमें जो लक्षण थे, सब साधु के लक्षण थे। राजनीति में रहना, राजनीति के कामकाज में रहना, फिर भी उससे अलग रहना, जैसे कमल जल में रहकर भी निर्लिप्त रहता है, वही स्थिति राजेन्द्र बाबू की थी। संसार में राजा जनक की परंपरा के जो इने-गिने मनुष्य थे, उनमें राजेन्द्र बाबू एक थे हमारे देश के ही लोग नहीं, संसार के लोग भी राजेन्द्र बाबू के जीवन से जरूर कुछ सीख सकते हैं। नैतिकता और मानवता उनमें कूट-कूटकर भरी हुई थी। किसी भी भाषण को इस दृष्टि से देखते थे कि उनमें नैतिकता की हानि न हो। वे देखते थे कि इससे मानवता की हत्या तो नहीं होगी। वे विचार में भेद पसंद करते थे, कार्य में भेद पसंद करते थे, लेकिन मतभेद न हो, विचार भेद भले हो, ऐसा मानते थे। इसका माने हैं कि वे मानवता के पुजारी थे, एकता के पुजारी थे, केवल हिंदू-मुसलिम एकता के नहीं, भारत में जितने रहनेवाले लोग हैं, भारत में जितनी भी भाषा बोलनेवाले लोग हैं, उन्हीें की एकता के नहीं, बल्कि वे सकल मानव समुदाय की एकता के पुजारी थे। इतना बड़ा महापुरुष हमारे देश से, संसार से उठ गया। वे ‘देशरत्न’ के नाम से विश्वविख्यात थे। सचमुच राजेंद्र बाबू को खोकर देश ने रत्न खो दिया। ऐसा रत्न हम फिर पा सकेंगे, इसमें हमें संदेह है। उनकी मृत्यु से समाज की, देश की और संसार की जो अपूरणीय क्षति हुई है, उसकी पूर्ति निकट भविष्य में हो सकेगी, इसमें हमें संदेह है। ऐसी महान् आत्मा के प्रति मैं अपनी ओर से और अपनी पार्टी की ओर से श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ तथा उनके शोक-संतप्त परिवार के प्रति संवेदना व्यक्त करता हूँ।