अब्दुल गफ्फार खाँ के निधन पर शोक-संवेदना
दिनांक: 20 जनवरी, 1988
श्री कर्पूरी ठाकुर-अध्यक्ष महोदय, जिस इतिहास को गांधी युग कहा जाता है, उस युग को हिमालय के जैसा महान्, विशाल और उच्चकोटि के नेता अब्दुल गफ्फार खाँ, जिन्हें लोग प्यार और इज्जत से ‘बादशाह खाँ’ कहते थे, वे हमसे छीन लिये गए। संसार के जितने महापुरुषों ने ख्याति पाई है, प्रसिद्धि पाई है अपनी सेवा से, अपने त्याग से, अपने बलिदान से, अपने परिश्रम से और अपनी बहादुरी से, उनमें बादशाह खाँ का नाम है, जो चमकता रहेगा सूरज और चाँद की तरह। ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़ाई में महात्मा गांधी के नेतृत्व में जो लोग अगली पंक्ति में रहे, उनमें बादशाह खाँ आते हैं। बादशाह खाँ पैठान होते हुए भी पैठान जाति की हिंसा करने में, मारपीट करने में, हथियार चलाने में तथा उनसे बदला साधने में आगे रहे। मगर महात्मा गांधी की शिक्षा-दीक्षा में प्रशिक्षित एवं दीक्षित होकर बादशाह खाँ ने न सिर्फ अपने लिए अहिंसा का मार्ग अपनाया, बल्कि पैठान जाति के लिए अहिंसा का पाठ पढ़ाया। सन् 1931 ई. और 1932 ई. के स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने अहिंसात्मक ढंग से जिस तरह आजादी की लड़ाई लड़नेवाले पैठान लोगों का नेतृत्व किया, जिस ढंग से उन्होंने फौज के सिपाहियों और पुलिस के सिपाहियों को अहिंसात्मक रूप से लड़ाई लड़ने में प्रभावित किया, वह सोने के अक्षरों से लिखा जाएगा। अध्यक्ष महोदय, यह दुर्भाग्य रहा कि स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेनेवाले बादशाह खाँ जैसे व्यक्ति को आजादी के बाद भी लगभग तीस वर्षों तक जेल की यातनाएँ भोगनी पड़ी। जहाँ हमने स्वतंत्रता का लाभ उठाया, वहाँ बादशाह खाँ जैसे महान् नेता ने लाभ नहीं उठाया, बल्कि हानि उठाई। उन्होंने आजादी की लड़ाई में भी शिद्दत-विद्दत सही और आजादी मिलने के बाद भी। मेरा खयाल है कि हिंदुस्तान की आजादी की लड़ाई लड़नेवाले महारथियों में जितनी यातनाएँ-पीड़ाएँ बादशाह खाँ ने भोगीं, उतनी किसी ने नहीं। वे अपनी करनी से, अपनी सेवा से और अपनी कुरबानी से न केवल भारत देश में ही, बल्कि पूरे संसार में अमर रहेंगे। उनके संबध में जितना कहा जाय, वह थोड़ा ही होगा। मुझे मालूम है, एक मामूली स्वतंत्रता सेनानी होने के नाते कि उस महापुरुष को महात्मा गांधी ने कई बार तत्कालीन कांग्रेस का अध्यक्ष बनाना चाहा, उन दिनों कांग्रेस का जो अध्यक्ष होता था, उनका सम्मान राष्ट्रपति से विभूषित किया जाता था, लेकिन वे बार-बार यही कहा करते थे कि हम खुदाई खिदमतगार हैं, मैं कांग्रेस अध्यक्ष बनना नहीं चाहता और न बनूँगा। उन्होंने अध्यक्ष बनने से इनकार किया, एक बार नहीं, बार-बार इनकार किया। उनको संतोष था खुदाई खिदमतगार बनकर सेवा करने में। अध्यक्ष महोदय, फौजी तानाशाह से लड़ना आसान काम नहीं है। जनतांत्रिक व्यवस्था जहाँ है, दुनिया में या अपने देश में, वहाँ अन्याय से, प्रशासनिक उत्पीड़न से लड़ना आसान है, बहुत आसान है, लेकिन सैनिक अधिनायकवाद से, फौजी तानाशाह से लड़ना न केवल पाकिस्तान से, बल्कि दुनिया के किसी मुल्क से जहाँ फौजी तानाशाह है, लड़ना आसान काम नहीं है। बादशाह खाँ फौजी तानाशाह से बराबर लड़ते रहे, कभी आत्मसमर्पण नहीं किया,कभी घुटने नहीं टेके। ऐसा शानदार आदमी, ऐसा ऊँचा आदमी, ऐसा बहादुर आदमी किसी कौम में नसीब होता है, बहुत मुश्किल से। ऐसे लोगों में थे बादशाह खाँ। उनके निधन से आज हमारा देश सूना हो गया है। दुनिया में जो मानवता के पुजारी हैं, स्वतंत्रता संग्राम में लड़नेवालों के लिए श्रद्धा और सम्मान रखते हैं, ऐसे तमाम लोग आज दुःखी होंगे, ऐसे तमाम लोगों के घरों में आज सूनापन छाया होगा। ऐसी दिवंगत आत्मा को अपनी ओर से तथा अपने दल की ओर से मैं श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ और भगवान् से प्रार्थना करता हूँ कि उनकी आत्मा को चिर शांति दें। उनके परिवार के जो लोग हैं, सांत्वना के भूखे नहीं होंगे, उनके परिवार में जो बचे हुए हैं, वे बहादुर हैं। उनके सुपुत्र आज भी फौजी तानाशाह से लड़ रहे हैं और लड़ते रहेंगे। इनकी भी जिंदगी अपने बाप की तरह एक दिन जाएगी, लेकिन फौजी तानाशाह के सामने झुकेंगे नहीं। हम लोगों का कर्तव्य है कि ऐसे परिवार के प्रति सांत्वना क्या भेजेंगे, बल्कि कृतज्ञता भेजेंगे।
(बिहार विधानसभा की दिनांक 20 जनवरी, 1988 की कार्रवाई से साभार)